Saturday, September 01, 2012

Hamaari Madam Jee...



लिखने से पहले सोचा कि ठीक है कहानी है, पर शुरुआत कैसे करें ?
फिर सोचा कि इधर उधर कि  न हांकें, सीधे औकात पर आयें.
अरे वाह ये तो rhyme  कर गया !!

तो बात ये है कि जब हम बारहवीं में थे तो हमारी एक मैडम थीं. अब वो गर्लफ्रेंड वाली नहीं. टीचर थीं. वैसे जब बहुत छोटे थे तब तो ये भी हुआ करता था कि अपने ही क्लास कि किसी क्लास मेट को जो “मैडम” बुला दो , तो वो मुंह पर हाथ रख के “hawww” करके भाग जाती थी और साथ साथ ये धमकी भी पिला जाती थी कि मैडम से तुम्हारी चुगली करूंगी. पर ये उस समय का किस्सा नहीं है. जो अभी बताने का मन किया है वो तो तब का है जब हम बारहवीं में थे. एक ऐसी उम्र जब स्कूल की uniform  अगर skirt से  change  कर के सलवार सूट  कर दी जाती थी तो लड़कों और लड़कियों, दोनों को तकलीफ होती थी.

खैर, अपनी मैडम जी पर लौटते हैं. वो हमें Chemistry पढाती थीं. मतलब हिंदी में रसायनशास्त्र. और अगर आप पाकिस्तान से हैं  तो आपके लिए इसका मतलब होता है बम बनाने का chapter. वैसे हमारी क्लास भी किसी बम से कम नहीं थी. दिल्ली के एक पोश इलाके के सरकारी स्कूल में ४४ की क्लास में २९ बिहार के विद्यार्थी आ धमके थे. और २९ के २९ विद्यार्थी ऐसे थे जिन्हें पास के IIT coaching centre की विद्या का ही अर्थ समझ आता था. स्कूल तो ये विद्यार्थी बस विद्या की अर्थी उठाने ही जाते थे.

तो हमारी मैडम जी की नज़र में ऐसे सारे बिहारी प्राणी तुच्छ थे जो उन जैसे स्कूल teachers को तुच्छ नज़रों से देखते थे. तो तुच्छता के इस competition में कभी हम सेर तो कभी वो सवा सेर. जिस दिन हमने स्कूल से बंक मार लिया, हमारे लिए वो तुच्छ हो जाती थीं. और जब अगले दिन  हम स्कूल पहुँचते थे, तो हमारी ठुकाई करके वो अपनी बादशाहत कायम कर लेती थीं.

तो मजमून ये है की जो हम चंट थे, तो वो चंडी थीं. पर जैसी थीं, हमारे लिए सही थीं. 75% attendance criteria पर जो हमने रेंग रेंग कर 57% पूरे किये थे, उनकी वज़ह से ही. नहीं तो 12% ही attendance होती . वो भी इसलिए क्यूंकि exams में तो स्कूल जाना ही पड़ता न.

पर भगवान मेरी जुबान को सद्गति दे, मुझे बड़ा मानती थीं वो. कुछ तो मेरी chemistry हमेशा से अच्छी रही थी, और तभी हमने shaving करना शुरू नहीं किया था, तो थोड़े भोले-भाले दिखते थे हम. पर ये मुखौटा भी एक दिन उतर गया. एक बार वो maths के मास्टरजी के साथ बैठ कर हमारी क्लास ले रहीं थी. मतलब पढ़ा नहीं रहीं थीं, पर “क्लास” ले रहीं थी. कुछ दिन पहले ही किसी test के results आये थे. कुछ तो घुट्टी वो दिल्ली के बच्चों को पिला चुकी थीं. अब बिहार की बारी थी.

“ये जो बिहार के बच्चे हैं न सर.”

“हम्म्म्म......”

“ये बिलकुल निकम्मे हैं.” कोशिश तो उन्होंने कोई taunt कसने की करी थी. पर उनका दिमाग ज्यादा चला नहीं था.

“हम्म्म.. सारा दिन तो ये FIITJEE , PIE  करते रहते हैं. अगर इनमें से किसी का IIT में हो गया न, तो मैं पढाना छोड़ दूंगा.” अब अगर ये challenge था तो बड़ा ही धूर्त challenge था क्यूंकि पढाते तो वो ऐसे भी नहीं थे. हाँ, अगर वो यूँ कहते कि नौकरी छोड़ दूंगा तो हम कुछ कोशिश करते जीतने की.

“सुबह उठ कर घर का सारा काम करो. पतिदेव को ऑफिस भेजो और फिर यहाँ आओ तो पता चलता है की इनमें से आधे तो स्कूल ही नहीं आये.” मन तो किया कि बोल दें कि हमें भी जो तनख्वाह मिले स्कूल आने की तो रोज आयेंगे. (वैसे जब अब नौकरी पर जाना पड़ता है तो जो meta इस बात में छुपा है, समझ आता है. )

मैं तो चाहता हूँ मैडम कि ये सारे fail हो जायें. सारी कारगुजारी इनके माँ-बाप को चिट्ठी में लिख कर भेजूंगा फिर. 1-2  को छोडकर जाने कैसे ये पास हो जाते हैं.” अब अगर आप इस आश्चर्य से उबर चुके हैं कि एक टीचर अपने बच्चों के फ़ैल होने कि कामना क्यूँ कर रहा है , तो आगे बढते हैं.

“अरे सर, कैमिस्ट्री में तो इतना भी सुख नहीं है. करीब करीब  सारे fail हुए पड़े हैं. Annual review कि तो इस बार band बज जायेगी. बस एक दो ढंग के हैं. एक ये रवि. और एक वो सुमित भी ठीक है.”

“ये रवि तो ठीक है, पर ये सुमित कौन है ?”

हम तो पहले से ही शुतुरमुर्ग कि तरह अपना सर छुपा कर बैठे थे. और भी छुपने कि कोशिश करने लगे. पर जो हमारा शरीर इतना flexible होता तो हम Olympics  में gymnastics में कुछ ना कर रहे होते?

जैसे ही उस मास्टर कि नज़र हम पर पड़ी, मानों किसी ने उसके पिछवाड़े में आग लगा दी. Rocket कि तरह हमारे पास सायं से पहुंचा और हमारे कान को पकड़ कर अपनी private property समझ कर मसलने लगा. फिर उत्पल दत्त कि आवाज़ में चीखा , “Eeesshhhhh….”

पल भर में ही उसने हमारे कान का अंदर बाहर दोनों से बलात्कार कर दिया था.

“ये पास कैसे हो गया? इस से आस न लगाओ मैडम. यही तो अकेला है जो मैथ में फ़ैल हो गया है.”

लंबी ख़ामोशी........

“तू तू मैथ में फ़ैल हो गया सुमित !!!!! सत्यानाश हो तेरा.”

“मैं मै मैं मैं मै .....”

आज भी ये वाकया याद आता है तो सोचता हूँ कि “मैं” बोलने कि कोशिश कर रहा था या मैडम. या फिर बस बकरिया से गए थे हम .

मैडम जी के धोने का एक अलग ही patented style था. चुटिया पकड़ कर जो वो इधर से उधर नृत्य करवाती थीं न, नरक से ललिता पवार, बिंदु और शशिकला कि फ़िल्मी आत्माएं उनपर ज़रूर फूल बरसाती होंगी. और जो किसी को कूटना हो तो झुका कर पीठ पर जो धौल पर धौल जमाती थीं कि बस उनकी  चूडियों कि तो शामत आ जाती थी. सबको एक न एक बार ये प्रसाद मिल चुका था क्लास में. हमारी भी बारी एकबार आ ही गयी.

हम सारे बिहारी कभी कभी अपने कमरों पर पत्ते खेलते थे. अब ये बात हमारी मैडम जी को पता लग गयी. अब जैसे कुछ बेवक़ूफ़ Anti –Anna होने को Anti-Corruption होना समझते हैं, वैसे ही कुछ लोग पत्ते खेलना को जुआ खेलना समझते हैं. तो हमारी मैडम जी भी कुछ इसी श्रेणी में आती थीं. कभी कभी वो अपने आप को जासूस और कभी कभी psychologist  भी समझती थीं. ये अच्छा मौका मिला था उनको.

“नालायकों तुम्हे इस दुनिया में तो कुछ करना नहीं, अपने माँ बाप का पैसा क्यूँ बर्बाद कर रहे हो यहाँ पत्ते खेल कर के ?”

फिर उन्होंने कुछ साम दाम और भेद का प्रयोग करने कि कोशिश की ये पता करने के लिए कि कौन कौन पत्ते खेलता है हमारे में से. कोई फायदा नहीं हुआ.  फिर अपनी औकात यानी कि दंड पर आ गयीं. एक एक को धोना शुरू किया. हमारे पास आयीं और चीखीं ,

“सुमित, तू भी पत्ते खेलता है ?”

हमारी ख़ामोशी को वो इकरार-ए-जुर्म समझ बैठे . और अगर नाइंसाफी का एहसास होता, तो हम और शायरी कर लेते.

दो धप्पे खाकर ही हमारी पीठ ने ज़वाब दे दिया. हम नीचे से चीखे, “अरे मैडम बस एक बार ही खेला था. अब क्या बच्चे कि जान लोगे?”
पता नहीं उन्हें हंसी आई या बात मान ली मेरी, या हाथ में दर्द हो गया उनके , हमारी जान बच गयी.

अगले लड़के के पास पहुंची वो. अब उनका दुर्भाग्य कहें या उसके बाद के बिहारियों का सौभाग्य, वोही था जिसे मैडम जी से सबसे कम डर लगता था.
“क्यूँ रे, तू भी पत्ते खेलता है ?”

“मैडम इसमें कौन सी बड़ी  बात है ? मैं तो अपने पिताजी के साथ भी पत्ते खेलता हूँ.”

लंबी खामोशी –पार्ट 2.
जासूसी और psychology  की एक साथ यूँ कहें की “लग गयी थी”.

अब आखिर में एक और वाकया बयान कर देता हूँ. अब ऐसा भी था कि वो मुझे बड़ा मानती थीं जैसा पहले बताया था. तो हमारी 12वीं में chemistry का practical  था. हमारा viva था final exams का. External साहब आये हुए थे. पहले दो सवाल organic chemistry  से पूछे गए थे. हमें हवा तक नहीं लगी. और हम से ज्यादा मैडम जी के पसीने छूट गए. हुआ ये था कि हमारे बैठने से पहले ही मैडम जी हमारी काफी तारीफ कर रखी थी. अच्छा बच्चा है, अच्छे नंबर लाता है. वगैरह वगैरह. 

External  ने पुछा,
“बेटे, nervous मत हो. क्या दिक्कत है ?”
“सर organic नहीं पढ़ी अब तक .”
“तो कहाँ से पूछें?”
“बाकी कुछ भी पूछ लो सर”

5 acid के नाम लिख दिए पेपर पर . और पूछा कि इनमें से सबसे strong कौन सा है?
हम फिर से कनफुजिया गए.

पहले के आगे पेन रखा. फिर दूसरे के आगे . और फिर तीसरे के आगे. जैसे ही तीसरे के आगे पेन रखा, हमारी मैडम जी बोल उठी, “अरे आता है तो बताओ न . Under confident क्यूँ हो रहे हो ?”
हम समझ गए. बेटे यही है answer.

थोडा confidence वापस आ गया था. अगले 4-5 सवाल के भी सही सही answer निकल गए थे.

जब रिजल्ट आया तो पता चला कि practicals में पूरे ३० के ३० नंबर मिले थे. हमारे कुछ मित्र ऐसे भी थे जो सब सही ज़वाब दे कर आये थे. सारे practical पूरे ठीक कर के आये थे. उन्हें २८-२९ नंबर ही मिले थे.



अब इस कहानी को हमारी मैडम जी के negative characterization के तौर पर नहीं देखिएगा. नहीं तो कहीं अच्छा नहीं लगेगा कि अपने मैडम जी के ३० नंबर का ये सिला दे रहा हूँ. खरी खोटी थीं. पर जैसा हमने कहा, हमें बड़ा मानती थीं.


1 comment:

Shiv said...

बहुत बढ़िया पोस्ट।
पढ़ाई के दिनों की यादें सबसे अच्छी होती हैं। आपकी पोस्ट पढ़कर हमें बी एससी में फाइकोलॉजी पढ़ाने वाली मैडम याद आ गईं।