“ बेटे. 7 रुपये दे दे. बहादुरगढ़ जाना है. बस
कि टिकेट के पैसे ना हैं म्हारे पास.”
ऑटो
से उतारते ही आवाज़ उसके कानों में पड़ी. जाटों सी बोली. पारंपरिक हरयाणवी औरतों से
बेरंग कपडे. कोई खास भिखारन वाली बात थी नहीं उस औरत में. पर ज़ाहिर सी बात थी कि acting अच्छी कर रही थी वो. तभी भिखारन लगने कि ज़रूरत भी नहीं थी.
पर
वो भी गुडगाँव में 8 साल से रह रहा था. खूब पता था उसे. भिखारियों को ज्यादा इज्ज़त न
तो वो दे सकता था ना ही उनकी झूठी कहानी पर यकीन कर सकता था. पच्चीसियों बार यहाँ से गुज़ारा होगा और दसियों बार इसी “भिखारन” ने टोका होगा. कभी झिडक कर कभी नज़रें झुका कर कन्नी काट जाता था.
पर
आज काफी दिनों के बाद वो ऑफिस के लिए लेट नहीं हो रहा था. 1-2 दिनों में दिवाली का
बोनस भी मिलने वाला था. उनके
झूठ का इल्म आज भी था उसे. तभी शायद जेब में 7 रुपये छुट्टे होने के बावजूद उसने 10 का
नोट निकाल कर पकड़ाया था. पर मानों वो तो गले पड़ गयी. ज्यादा अवाक् नहीं हुआ पर वो.
बल्कि उसे पता था कि शायद ऐसा होगा. तो थोडा तैयार सा था.
“बेटा, 20 रुपये और दे दो. बहुत भूख लग रही है.”
“पर
आपने तो बहादुरगढ़ जाना था ना. और वैसे भी इतनी सुबह सुबह कहाँ खाना मिलेगा आपको?”
आँखें
थोड़ी कनफुजिया गयी थीं उसकी.
“और
ताई, वैसे बहादुरगढ़ क्यूँ जाना है आपको?”
तब
तक एक और ऑटो आ गया था. उस महिला कि नज़र उस तरफ जाने लगी. हमारी कहानी के हीरो ने 20 रुपये निकाल कर उस “भिखारन” को पकड़ा दिए. और वापस ऑफिस की तरफ मुड़ने लगा. तभी पीछे
से आवाज़ आई.
“बेटे
अगर मेरा बेटा मुझे यहाँ छोड़ कर गायब नहीं हो गया होता ना तो आज तुझे बेटा कहने कि
ज़रूरत ना होती शायद.”
सुना
उसने. पर अनसुना कर दिया. वापस मुड़ने के लिए न शब्द थे न हिम्मत.
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