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Friday, May 15, 2015

झुनझुना (Jhunjhuna)

उनका नाम था झुन्नुलाल झल्केश झा. माने कि ऐसा नाम कि चिरौंजीलाल खोसला को भी कमल किशोर खोसला की अम्मा पर प्यार उमड़ आये. अब जी ऐसा नाम कोई conspiracy से कम तो था नहीं. इसलिए उनका ये नाम कैसा रखा गया इसपर भी कई सारी conspiracy theory थीं. किसी से सुना था कि जब छोटे थे तो उन्हें जितना प्यार अपनी अम्मा से था उससे कहीं ज्यादा प्यार अपने झुनझुने से था. उसी को लेकर सोना, उसी को लेकर नहाना, उसी को लेकर धोना, उसी को लेकर खाना और ये झुनझुना प्रेम तीन साल तक चला. तो अम्मा ने उनका नाम झुन्नू ही रख दिया. दूसरी theory इसी कहानी में थोडा नमक-मिर्च डाल कर बनी थी. ऐसा था कि उनके दादाजी primary स्कूल में हिंदी पढ़ाते थे. उन्हें अनुप्रास अलंकर से बड़ा प्रेम था जैसे कि उन सब हिंदी teachers को होता है जिन्हें हिंदी विषय कैसे पढ़ाना होता है उसकी a, b, c, d भी नहीं आती और इसी अलंकर के बैनर तले अपनी उपयोगिता सिद्ध करने की जद्दोजहद करते पाए जाते हैं. तो इसी लिए पूरा अलंकारमय नाम रख दिया अपने पोते का. तीसरी theory तो वो ही घिसी-पिटी थी. परिवार के ज्योतिषी ने कहा था कि लड़के का नाम “झ” से शुरू होना चाहिए. और अगर दो “झ” हों नाम में तो फिर तो अति उत्तम. तो अब फिर उसका नाम “झाझा” तो रख नहीं देते कि बच्चे का नाम हो जाए “झाझा झा”. तो फिर यूँ कह सकते हैं सारी बातों के मद्देनजर, He got the best possible deal.

हाँ तो झुन्नू जी के पिताजी पेशे से दवाई की दूकान चलाते थे. अब छोटे कस्बों में डॉक्टर तो ज्यादा होते नहीं. लोग chemist से ही पूछ कर दवा-दारू करते हैं. और जो chemist को injection वगैरह देना आता हो तो कहना ही क्या. पूरा डॉक्टर ही बन जाता है. और जो कहीं थोड़ी चीड़-फाड़, bandage वगैरह कर लेता हो तो समझ लीजिये कि मानों mini-Fortis ही खोल लिया है. तात्पर्य ये कि झुन्नू जी अच्छे खाते पीते घर के थे. वो वैसे कंठाहा ब्राह्मण थे. उनके परदादा लोगों को श्राद्ध, दाह-संस्कार इत्यादि करवाते थे. तो देखा जाए तो गरुड़ पुराण बांचने से लेकर घर के चिराग को आगे पढने के लिए दिल्ली भेजना किसी भी मायने में काफी उम्दा generational leap थी.

उनकी अम्मा ने उनके साथ उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ एक cook-cum-cleaner-cum-squire-cum-निगेहबान भेजा था. उसका नाम था “छोटुआ”. पूरी संभावना थी कि ये नाम छोटू का अपभ्रंश था पर छोटू बुलाते हुए उसे मैंने किसी को सुना नहीं था इसलिए ये confirm नहीं कर सकता. सारे काम करने के अलावा छोटुआ उनपे ये भी नज़र रखता था कि वो किसी लड़की से पींगे तो नहीं बढ़ा रहे; कहीं दिल्ली की बदनाम हवा तो नहीं लग रही उनको. और सारी रिपोर्ट वापस उनकी अम्माजी को किया करता था. खानदान के इकलौते चिराग थे. और कम से कम 35 लाख के post-dated cheque थे झुन्नू भैय्या. तो इतनी निगरानी तो कोई ज़ाया नहीं थी. 

उनको अपने नाक पर ऊँगली रखके सोचने की आदत थी. जैसे औरों को अपने माथे पर रख के सोचने की होती है. असल में उनकी नाक इतनी बड़ी थी कि शायद पहली बार माथे कि तरफ ऊँगली ले जाते वक़्त बीच में barrier बन के नाक आ गयी होगी और बाद में ये आदत बन गयी. इतनी भयानक आदत थी कि अगर हाथ busy हो तो छोटुआ को बाकायदा बोला जाता था कि उनकी नाक पर ऊँगली रखे ताकि वो सोच सकें. 
अब झुन्नू भैया ज्यादा bright से शख्स थे नहीं. ज़ाहिर सी बात है कि जो कोई अपनी नाक से सोचता हो उससे क्या ही उम्मीद लगायी जा सकती है? एक बार झुन्नू भैय्या खाने बैठे राजमा-चावल तो राजमा में कोई taste ही नहीं लगा उन्हें. बिलकुल फीका. फिर क्या था? छोटुआ पर बरस पड़े, “तुमको का लगता है? एक तुम ही हमारा जासूसी कर सकता है? हम भी मम्मी को खबर कर सकते हैं कि तुम कोई काम ढंग से नहीं करता है. फिर जाना तुम वापस भितरामपुर.”
“का हो गया? काहे कौवा बने हुए हैं?”
“ई कोई राजमा बनाया था तुम? न नमक न मसाला. खाना बनाना याद भी है?”
“हम कब राजमा बनाये? का खा लिए आप? हमको तो पता ही नहीं है. अरे वो जो हम फूलने के लिए पानी में डाले थे, कहीं वो तो नहीं खा गए न?”

Silence. Awkward Silence. साला Awkward का बाप Silence.


अब जो झुन्नूपुराण बांचने बैठेंगे तो सुबह से रात और फिर सुबह हो जाएगी. सो थोडा थोडा बताय रहे हैं. 

ऐसा हुआ एक बार कि वो 12वीं के board के mock टेस्ट में chemistry में fail हो गए. तो उनको ये निर्देश मिले कि अपने पिताजी की मैडमजी के सामने परेड करवाई जाए. अब कम नंबर लाने का उनका अनुभव तो पुराना था पर अपने पिताजी के सामने उनके कभी कम नंबर नहीं आये. कुछ ऐसी बातें होती थी उनकी रिजल्ट निकलने के बाद.
“पप्पाजी रिजल्ट आ गया.”
“कैसे नंबर आये?”
“अच्छे ही आये हैं.” [ सिर्फ ठीक बोलने से न तो काम चलता था और शक पैदा होने की भी गुंजाईश रहती थी.]
“पर कितने अच्छे आये हैं?”
“ जी 57% आये हैं.” (ये सच्चाई थी. पर ख़ुशी और दुःख के एक delicate से बैलेंस को बना कर ये बोलना होता था जिससे लगे कि ये कम नंबर भी अच्छे ही हैं.)
“पर बेटा, ये तो कम हैं. फर्स्ट डिभीज़न भी नहीं हैं.” ( जैसे पंजाबियों को बटर चिकन से, मद्रासियों को The Hindu newspaper से मोहब्बत होती है, वैसे ही बिहार में माँ-बाप को फर्स्ट डिभीज़न से लगाव होता  है).
“अच्छे हैं पप्पाजी. हमारी क्लास में बस 3 लोगों के इससे ज्यादा आये हैं.” (ये trick use करके अपने पिताजी को चूतिया बनाने की कोशिश करने वाले शायद वो दुनिया के 15478921वें शख्श थे.)
“ऐसे कैसे बेवक़ूफ़ पढ़ते हैं तुम्हारी क्लास में. बेकारे तुमको दिल्ली भेजे.”
“अरे ऐसा नहीं है पप्पाजी. वो हमारी मैडम सब हैं न वो कम ही नंबर देते हैं. ऊ का बोलते हैं कि ज्यादा नंबर दे दिए तो बच्चा लोग ऊ का कहते हैं कंप्लेंट हो जायेगा और पढाई नहीं करेगा.”


उनके पिताजी इसके बाद ज्यादा कुछ नहीं कहते थे. शायद कई बार जनसे ज्यादा प्यार किया जाता है उनके द्वारा बेवक़ूफ़ बनाये जाने की आदत हो जाती है. बस इसी mutual understanding पर दोनों की बातें ख़त्म हो जाती थी.

पर अब जो fail हो गए थे और निर्देश सख्त थे तो झुन्नू जी को ये समझ नहीं आ रहा था कि पप्पाजी को कैसे समझाएं कि रातों-रात उनका ये सचिन तेंदुलकर शिव सुन्दर दास कैसे बन गया. तो काफी पशोपेश में थे.  

“अरे झुन्नू भैया, कहते हैं कि मजबूरी में तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. कसम से हम fail हुए होते तो आपको ही बाप बना कर ले जाते. पर अब आप तो ये भी नहीं कर सकते न.”
नाक पर ऊँगली रखने के बाद भी उनकी समझ में घंटा कुछ नहीं आया. अच्छा ही था एक तरीके से ये भी. तभी हमारे दिमाग में कुछ चमका.
“झुन्नू भैया. गधा छोड़िये. गधे से अच्छी acting तो आपका छोटुआ कर लेगा. थोडा बड़ा तो लगता ही है आपसे. का कहते हैं, बताइए.”
“नहीं मानेगा न. और मैडमजी को पता लग गया तो बम्बू कर देंगी.”
“और जो आपके पप्पा को पता चल गया की आप chemistry में चारों खाने चित्त हो गए हैं तो बम्बू छोड़िये, टेंट नहीं खड़ा कर देंगे वो? तो सोच लीजिये कि टेंट चाहिए या बम्बू?”

इस argument पर वो फिर से चारों खाने चित्त हो गए.

छोटुआ को मनाना कोई बड़ी बात नहीं थी. अगर जो ये नाटक चल जाता तो उसके हाथ में ज़िन्दगी  भर के लिए झुन्नू भैया को blackmail करने का ज़बरदस्त हथियार आ जाता. और जो कहीं नहीं चलता तो कुछ पैसे और “included perks” की guarantee उसे दे दी गयी थी. ये असल में झुन्नू भैय्या ने नहीं दी थी. हमलोगों ने दी थी. कोई तमाशा बनने को तैयार हो जाए तो कई बार डमरू बजाने की ज़रुरत नहीं होती भीड़ इकठ्ठा करने के लिए.

छोटुआ को सब कुछ सिखा दिया था उन्होंने. कहने का मतलब बस ये था कि उसको बता दिया था कि उसे बस चुप रहना है. बाकी झुन्नू भैय्या को भरोसा था कि वो संभाल लेंगे. उनका भरोसा देख कर समझ में आता था कि मायावती और राम विलास पासवान जैसे लोग कैसे प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगते हैं.


D-Day के दिन छोटुआ को लेकर झुन्नू भैय्या स्कूल पहुंचे. सीधे शब्दों में कहें तो उनकी फटी पड़ी थी. आखिर बम्बू/टेंट के लिए जगह भी बनानी थी. खैर मैडम जी अच्छे मूड में लग रही थी. वैसे भी PTM के दिन सारे teacher अच्छे मूड में ही होते हैं. मानों कोई मोबाइल पर shooting गेम खेल रहे हों और अचानक से बोनस लेवल आ जाये और भड़भड़ा कर 50-60 टारगेट्स एक साथ आ जायें तो मन कैसे गदगद हो जाता है. PTM में टीचरों को ऐसे ही लगता होगा. ये बच्चा कहीं छूट ना जाए.

झुन्नू भैया का भी नंबर आया. उनको देखते ही मैडम जी चिहुंक कर बोलीं, “क्यूँ बे झुन्नुलाल. बाबूजी को बुलाने बोले थे न आपको. ये भैयाजी को पकड़ कर क्यूँ ले आये हो? और भाई भी बड़ा है कि छोटा?”
“मैडमजी, ये भैया नहीं हैं. हमारे पप्पाजी हैं. बस दिखते नहीं हैं.”

वैसे तो छोटुआ को सख्त दिशानिर्देश दिए गए थी कि वो अपना मुंह न खोले पर जो कहीं दुनिया महज़ हिदायतों पर चलती तो फिर कुछ भी नया कभी कहाँ होना था?
तो वो कूद पड़ा.


“अरे श्रीमतीजी हम इसके बाप ही हैं. वो क्या है कि हमारा बाल विवाह हो गया था. तो  जब हम बच्चे थे तभी हमारे बच्चे हो गए थे. और फिर थोड़े खाते पीते घर के हैं इसलिए, नज़र न लगे पर ज्यादा अधेड़ दिखते नहीं हैं.”


ये बकैती छोटुआ की masterstroke निकली. मैडमजी को जो छोटुआ के झुन्नू भैय्या के पिताजी होने पर संदेह था, उस शक पर अब शक के काले बादल घुमड़ने लगे थे. पर झुन्नू भैया के दिमाग में झुनझुना बजने लगा था. पूरी script रट्टा लगा के आये थे वो. यहाँ ससुरी पहला सवाल ही out of syllabus जा रहा था.

 पर मैडमजी भी  इतनी जल्दी कहाँ हार मानने वाली थी. बड़े ही casual से अंदाज़ में पुछा, “तो जी नाम क्या बताया आपने?”
छोटुआ के मुंह से तपाक से निकला, “जी बुच्चन भैया बुलाते हैं हमको”.

मैडमजी की त्योरियां चढ़ने से पहले ही झुन्नू भैय्या के एंटीने खड़े हो गए थे, नथुने फड़कने लगे थे और मुंह से झाग निकलने ही वाला था कि वो किसी तरह बोले, “वो इनका नाम तो गंगाश्रय झा है. गाँव में बुच्चन भैया बुलाते हैं. वो हमारे पप्पाजी गाँव से बाहर निकले नहीं काफी समय से तो कई बार अपना असली नाम ही भूल जाते हैं.”

कुछ हुआ कि मैडमजी मान गयीं. पता नहीं क्या.

“तो गंगाधर जी, आप दवाई कि दूकान करते हैं न? मुझे पता चला कहीं से. तो कहीं से कुछ दवाई दारू कीजिये अपने लाडले के लिए नहीं तो इनको पास करने के लिए बस दुआ का सहारा रह जायेगा.”
ये कह के ठहाका लगा कर हंसी. फिर बोलीं, “आप केमिस्ट और आपका बेटा केमिस्ट्री में fail. हाहाहा.”

सच बताएं तो जितनी rehersal उन्होंने इस joke और हंसी दोनों की कर रखी थी उसके मद्देनजर उनका परफॉरमेंस काफी कमज़ोर था. खैर.

पर ये बात छोटुआ के बारे में नहीं कही जा सकती. वो पूरा character में घुस चुका था. उसके बाद जो हुआ उसका अंदेशा झुन्नू भैय्या ने अपने सपने में तो क्या अपने सपने के inception में भी नहीं हुआ होगा. ये इधर झुन्नू भैया का कान था और ये इधर छोटुआ का हाथ था. “ई का कह रहे हैं मैडमजी? हम तुमको भेजे यहाँ विद्यार्थी बनने के लिए और तुम तो विद्या की ही अर्थी उठा रहे हो बेटा. अभी तुम्हारे दादाजी को पता चलेगा तो वो तो सदमे से ही मर जायेंगे.”

ज़ाहिर सी बात थी, सिनेमा देख देख कर उसने acting करना सीखा था. सो कतई निरूपा राय बन बैठा था. ये दीगर बात थी कि निरूपा राय के बेटे आमतौर पर college में first आया करते थे.

छोटुआ तो दो चार झापड़ भी लगाने वाला था पर मैडमजी को अभी कुछ और parents से भी जूझना था. तो थोडा प्यार से बोलीं, “कोई नहीं  गंगाराय जी. अगले mock टेस्ट में झुन्नूलाल पास हो जायेंगे. ऐसे भी पहला mock टेस्ट हम जल्दी ले लेते हैं तो बच्चों के पास कई दफा टाइम नहीं होता ज्यादा. तो अब आप जाइये.”

तो ऐसे “बाप बनाओ operation” में विजयी होकर दोनों ने जैसे ही पीछे मुड़कर चलना शुरू किया था कि पीछे से मैडम जी ने आवाज़ लगायी, “गंगाराम जी, ये हमारी spondylitis का दर्द बढ़ता ही जा रहा है. कोई अच्छा pain-killer बताइए न  जिसके sideffects न हों.”

“मैडमजी, हम दवाई की दूकान चलाते भर  हैं बस. वैसे तो कुछ लोग देश भी चलाते हैं. है कि नहीं ? जी अब जाते हैं हम.”

मैडमजी ने हंस कर सर हिला दिया सहमति में. पर जैसे ही दोनों बाहर निकलने वाले थे कि पीछे से आवाज़ आई, “झुन्नुलाल यहाँ आओ थोडा. और अकेले ही आना.”
पास पहुँचने पर मैडम जी ने कहा, “देखिये अगर आप अगले mock टेस्ट में fail हो जाते हैं तो हम आपको boards में तो नहीं ही बैठने देंगे और साथ ही आपके पिताजी को फ़ोन भी कर देंगे. असली वाले पिताजी को. समझ गए न.  अब जाइये.”


P.S:- झुन्नू भैया mock में तो पास हो गए पर board में fail हो गए. आजकल पिताजी को रिटायर करवा के दवाई की दूकान खुद चलाते हैं. और बस ये है कि उनके कैशिएर कि तनख्वाह हमारे take home से थोड़ी सी ज्यादा है.

Saturday, October 06, 2012

Beta


“ बेटे. 7 रुपये दे दे. बहादुरगढ़ जाना है. बस कि टिकेट के पैसे ना हैं म्हारे पास.”

ऑटो से उतारते ही आवाज़ उसके कानों में पड़ी. जाटों सी बोली. पारंपरिक हरयाणवी औरतों से बेरंग कपडे. कोई खास भिखारन वाली बात थी नहीं उस औरत में. पर ज़ाहिर सी बात थी कि acting अच्छी कर रही थी वो. तभी भिखारन लगने कि ज़रूरत भी नहीं थी.

पर वो भी गुडगाँव में 8 साल से रह रहा था. खूब पता था उसे. भिखारियों को ज्यादा इज्ज़त न तो वो दे सकता था ना ही उनकी झूठी कहानी पर यकीन कर सकता था.पच्चीसियों बार यहाँ से गुज़ारा होगा और दसियों बार इसी “भिखारन” ने टोका होगा. कभी झिडक कर कभी नज़रें झुका कर कन्नी काट जाता था.

पर आज काफी दिनों के बाद वो ऑफिस के लिए लेट नहीं हो रहा था. 1-2 दिनों में दिवाली का बोनस भी मिलने वाला था. उनके झूठ का इल्म आज भी था उसे. तभी शायद जेब में 7 रुपये छुट्टे होने के बावजूद उसने 10 का नोट निकाल कर पकड़ाया था. पर मानों वो तो गले पड़ गयी. ज्यादा अवाक् नहीं हुआ पर वो. बल्कि उसे पता था कि शायद ऐसा होगा. तो थोडा तैयार सा था.

“बेटा, 20 रुपये और दे दो. बहुत भूख लग रही है.”
“पर आपने तो बहादुरगढ़ जाना था ना. और वैसे भी इतनी सुबह सुबह कहाँ खाना मिलेगा आपको?”

आँखें थोड़ी कनफुजिया गयी थीं उसकी. 

“और ताई, वैसे बहादुरगढ़ क्यूँ जाना है आपको?”

तब तक एक और ऑटो आ गया था. उस महिला कि नज़र उस तरफ जाने लगी. हमारी कहानी के हीरो ने 20 रुपये निकाल कर उस “भिखारन” को पकड़ा दिए. और वापस ऑफिस की तरफ मुड़ने लगा. तभी पीछे से आवाज़ आई.

“बेटे अगर मेरा बेटा मुझे यहाँ छोड़ कर गायब नहीं हो गया होता ना तो आज तुझे बेटा कहने कि ज़रूरत ना होती शायद.”

सुना उसने. पर अनसुना कर दिया. वापस मुड़ने के लिए न शब्द थे न हिम्मत.  

Saturday, September 01, 2012

Hamaari Madam Jee...



लिखने से पहले सोचा कि ठीक है कहानी है, पर शुरुआत कैसे करें ?
फिर सोचा कि इधर उधर कि  न हांकें, सीधे औकात पर आयें.
अरे वाह ये तो rhyme  कर गया !!

तो बात ये है कि जब हम बारहवीं में थे तो हमारी एक मैडम थीं. अब वो गर्लफ्रेंड वाली नहीं. टीचर थीं. वैसे जब बहुत छोटे थे तब तो ये भी हुआ करता था कि अपने ही क्लास कि किसी क्लास मेट को जो “मैडम” बुला दो , तो वो मुंह पर हाथ रख के “hawww” करके भाग जाती थी और साथ साथ ये धमकी भी पिला जाती थी कि मैडम से तुम्हारी चुगली करूंगी. पर ये उस समय का किस्सा नहीं है. जो अभी बताने का मन किया है वो तो तब का है जब हम बारहवीं में थे. एक ऐसी उम्र जब स्कूल की uniform  अगर skirt से  change  कर के सलवार सूट  कर दी जाती थी तो लड़कों और लड़कियों, दोनों को तकलीफ होती थी.

खैर, अपनी मैडम जी पर लौटते हैं. वो हमें Chemistry पढाती थीं. मतलब हिंदी में रसायनशास्त्र. और अगर आप पाकिस्तान से हैं  तो आपके लिए इसका मतलब होता है बम बनाने का chapter. वैसे हमारी क्लास भी किसी बम से कम नहीं थी. दिल्ली के एक पोश इलाके के सरकारी स्कूल में ४४ की क्लास में २९ बिहार के विद्यार्थी आ धमके थे. और २९ के २९ विद्यार्थी ऐसे थे जिन्हें पास के IIT coaching centre की विद्या का ही अर्थ समझ आता था. स्कूल तो ये विद्यार्थी बस विद्या की अर्थी उठाने ही जाते थे.

तो हमारी मैडम जी की नज़र में ऐसे सारे बिहारी प्राणी तुच्छ थे जो उन जैसे स्कूल teachers को तुच्छ नज़रों से देखते थे. तो तुच्छता के इस competition में कभी हम सेर तो कभी वो सवा सेर. जिस दिन हमने स्कूल से बंक मार लिया, हमारे लिए वो तुच्छ हो जाती थीं. और जब अगले दिन  हम स्कूल पहुँचते थे, तो हमारी ठुकाई करके वो अपनी बादशाहत कायम कर लेती थीं.

तो मजमून ये है की जो हम चंट थे, तो वो चंडी थीं. पर जैसी थीं, हमारे लिए सही थीं. 75% attendance criteria पर जो हमने रेंग रेंग कर 57% पूरे किये थे, उनकी वज़ह से ही. नहीं तो 12% ही attendance होती . वो भी इसलिए क्यूंकि exams में तो स्कूल जाना ही पड़ता न.

पर भगवान मेरी जुबान को सद्गति दे, मुझे बड़ा मानती थीं वो. कुछ तो मेरी chemistry हमेशा से अच्छी रही थी, और तभी हमने shaving करना शुरू नहीं किया था, तो थोड़े भोले-भाले दिखते थे हम. पर ये मुखौटा भी एक दिन उतर गया. एक बार वो maths के मास्टरजी के साथ बैठ कर हमारी क्लास ले रहीं थी. मतलब पढ़ा नहीं रहीं थीं, पर “क्लास” ले रहीं थी. कुछ दिन पहले ही किसी test के results आये थे. कुछ तो घुट्टी वो दिल्ली के बच्चों को पिला चुकी थीं. अब बिहार की बारी थी.

“ये जो बिहार के बच्चे हैं न सर.”

“हम्म्म्म......”

“ये बिलकुल निकम्मे हैं.” कोशिश तो उन्होंने कोई taunt कसने की करी थी. पर उनका दिमाग ज्यादा चला नहीं था.

“हम्म्म.. सारा दिन तो ये FIITJEE , PIE  करते रहते हैं. अगर इनमें से किसी का IIT में हो गया न, तो मैं पढाना छोड़ दूंगा.” अब अगर ये challenge था तो बड़ा ही धूर्त challenge था क्यूंकि पढाते तो वो ऐसे भी नहीं थे. हाँ, अगर वो यूँ कहते कि नौकरी छोड़ दूंगा तो हम कुछ कोशिश करते जीतने की.

“सुबह उठ कर घर का सारा काम करो. पतिदेव को ऑफिस भेजो और फिर यहाँ आओ तो पता चलता है की इनमें से आधे तो स्कूल ही नहीं आये.” मन तो किया कि बोल दें कि हमें भी जो तनख्वाह मिले स्कूल आने की तो रोज आयेंगे. (वैसे जब अब नौकरी पर जाना पड़ता है तो जो meta इस बात में छुपा है, समझ आता है. )

मैं तो चाहता हूँ मैडम कि ये सारे fail हो जायें. सारी कारगुजारी इनके माँ-बाप को चिट्ठी में लिख कर भेजूंगा फिर. 1-2  को छोडकर जाने कैसे ये पास हो जाते हैं.” अब अगर आप इस आश्चर्य से उबर चुके हैं कि एक टीचर अपने बच्चों के फ़ैल होने कि कामना क्यूँ कर रहा है , तो आगे बढते हैं.

“अरे सर, कैमिस्ट्री में तो इतना भी सुख नहीं है. करीब करीब  सारे fail हुए पड़े हैं. Annual review कि तो इस बार band बज जायेगी. बस एक दो ढंग के हैं. एक ये रवि. और एक वो सुमित भी ठीक है.”

“ये रवि तो ठीक है, पर ये सुमित कौन है ?”

हम तो पहले से ही शुतुरमुर्ग कि तरह अपना सर छुपा कर बैठे थे. और भी छुपने कि कोशिश करने लगे. पर जो हमारा शरीर इतना flexible होता तो हम Olympics  में gymnastics में कुछ ना कर रहे होते?

जैसे ही उस मास्टर कि नज़र हम पर पड़ी, मानों किसी ने उसके पिछवाड़े में आग लगा दी. Rocket कि तरह हमारे पास सायं से पहुंचा और हमारे कान को पकड़ कर अपनी private property समझ कर मसलने लगा. फिर उत्पल दत्त कि आवाज़ में चीखा , “Eeesshhhhh….”

पल भर में ही उसने हमारे कान का अंदर बाहर दोनों से बलात्कार कर दिया था.

“ये पास कैसे हो गया? इस से आस न लगाओ मैडम. यही तो अकेला है जो मैथ में फ़ैल हो गया है.”

लंबी ख़ामोशी........

“तू तू मैथ में फ़ैल हो गया सुमित !!!!! सत्यानाश हो तेरा.”

“मैं मै मैं मैं मै .....”

आज भी ये वाकया याद आता है तो सोचता हूँ कि “मैं” बोलने कि कोशिश कर रहा था या मैडम. या फिर बस बकरिया से गए थे हम .

मैडम जी के धोने का एक अलग ही patented style था. चुटिया पकड़ कर जो वो इधर से उधर नृत्य करवाती थीं न, नरक से ललिता पवार, बिंदु और शशिकला कि फ़िल्मी आत्माएं उनपर ज़रूर फूल बरसाती होंगी. और जो किसी को कूटना हो तो झुका कर पीठ पर जो धौल पर धौल जमाती थीं कि बस उनकी  चूडियों कि तो शामत आ जाती थी. सबको एक न एक बार ये प्रसाद मिल चुका था क्लास में. हमारी भी बारी एकबार आ ही गयी.

हम सारे बिहारी कभी कभी अपने कमरों पर पत्ते खेलते थे. अब ये बात हमारी मैडम जी को पता लग गयी. अब जैसे कुछ बेवक़ूफ़ Anti –Anna होने को Anti-Corruption होना समझते हैं, वैसे ही कुछ लोग पत्ते खेलना को जुआ खेलना समझते हैं. तो हमारी मैडम जी भी कुछ इसी श्रेणी में आती थीं. कभी कभी वो अपने आप को जासूस और कभी कभी psychologist  भी समझती थीं. ये अच्छा मौका मिला था उनको.

“नालायकों तुम्हे इस दुनिया में तो कुछ करना नहीं, अपने माँ बाप का पैसा क्यूँ बर्बाद कर रहे हो यहाँ पत्ते खेल कर के ?”

फिर उन्होंने कुछ साम दाम और भेद का प्रयोग करने कि कोशिश की ये पता करने के लिए कि कौन कौन पत्ते खेलता है हमारे में से. कोई फायदा नहीं हुआ.  फिर अपनी औकात यानी कि दंड पर आ गयीं. एक एक को धोना शुरू किया. हमारे पास आयीं और चीखीं ,

“सुमित, तू भी पत्ते खेलता है ?”

हमारी ख़ामोशी को वो इकरार-ए-जुर्म समझ बैठे . और अगर नाइंसाफी का एहसास होता, तो हम और शायरी कर लेते.

दो धप्पे खाकर ही हमारी पीठ ने ज़वाब दे दिया. हम नीचे से चीखे, “अरे मैडम बस एक बार ही खेला था. अब क्या बच्चे कि जान लोगे?”
पता नहीं उन्हें हंसी आई या बात मान ली मेरी, या हाथ में दर्द हो गया उनके , हमारी जान बच गयी.

अगले लड़के के पास पहुंची वो. अब उनका दुर्भाग्य कहें या उसके बाद के बिहारियों का सौभाग्य, वोही था जिसे मैडम जी से सबसे कम डर लगता था.
“क्यूँ रे, तू भी पत्ते खेलता है ?”

“मैडम इसमें कौन सी बड़ी  बात है ? मैं तो अपने पिताजी के साथ भी पत्ते खेलता हूँ.”

लंबी खामोशी –पार्ट 2.
जासूसी और psychology  की एक साथ यूँ कहें की “लग गयी थी”.

अब आखिर में एक और वाकया बयान कर देता हूँ. अब ऐसा भी था कि वो मुझे बड़ा मानती थीं जैसा पहले बताया था. तो हमारी 12वीं में chemistry का practical  था. हमारा viva था final exams का. External साहब आये हुए थे. पहले दो सवाल organic chemistry  से पूछे गए थे. हमें हवा तक नहीं लगी. और हम से ज्यादा मैडम जी के पसीने छूट गए. हुआ ये था कि हमारे बैठने से पहले ही मैडम जी हमारी काफी तारीफ कर रखी थी. अच्छा बच्चा है, अच्छे नंबर लाता है. वगैरह वगैरह. 

External  ने पुछा,
“बेटे, nervous मत हो. क्या दिक्कत है ?”
“सर organic नहीं पढ़ी अब तक .”
“तो कहाँ से पूछें?”
“बाकी कुछ भी पूछ लो सर”

5 acid के नाम लिख दिए पेपर पर . और पूछा कि इनमें से सबसे strong कौन सा है?
हम फिर से कनफुजिया गए.

पहले के आगे पेन रखा. फिर दूसरे के आगे . और फिर तीसरे के आगे. जैसे ही तीसरे के आगे पेन रखा, हमारी मैडम जी बोल उठी, “अरे आता है तो बताओ न . Under confident क्यूँ हो रहे हो ?”
हम समझ गए. बेटे यही है answer.

थोडा confidence वापस आ गया था. अगले 4-5 सवाल के भी सही सही answer निकल गए थे.

जब रिजल्ट आया तो पता चला कि practicals में पूरे ३० के ३० नंबर मिले थे. हमारे कुछ मित्र ऐसे भी थे जो सब सही ज़वाब दे कर आये थे. सारे practical पूरे ठीक कर के आये थे. उन्हें २८-२९ नंबर ही मिले थे.



अब इस कहानी को हमारी मैडम जी के negative characterization के तौर पर नहीं देखिएगा. नहीं तो कहीं अच्छा नहीं लगेगा कि अपने मैडम जी के ३० नंबर का ये सिला दे रहा हूँ. खरी खोटी थीं. पर जैसा हमने कहा, हमें बड़ा मानती थीं.