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Friday, May 15, 2015

झुनझुना (Jhunjhuna)

उनका नाम था झुन्नुलाल झल्केश झा. माने कि ऐसा नाम कि चिरौंजीलाल खोसला को भी कमल किशोर खोसला की अम्मा पर प्यार उमड़ आये. अब जी ऐसा नाम कोई conspiracy से कम तो था नहीं. इसलिए उनका ये नाम कैसा रखा गया इसपर भी कई सारी conspiracy theory थीं. किसी से सुना था कि जब छोटे थे तो उन्हें जितना प्यार अपनी अम्मा से था उससे कहीं ज्यादा प्यार अपने झुनझुने से था. उसी को लेकर सोना, उसी को लेकर नहाना, उसी को लेकर धोना, उसी को लेकर खाना और ये झुनझुना प्रेम तीन साल तक चला. तो अम्मा ने उनका नाम झुन्नू ही रख दिया. दूसरी theory इसी कहानी में थोडा नमक-मिर्च डाल कर बनी थी. ऐसा था कि उनके दादाजी primary स्कूल में हिंदी पढ़ाते थे. उन्हें अनुप्रास अलंकर से बड़ा प्रेम था जैसे कि उन सब हिंदी teachers को होता है जिन्हें हिंदी विषय कैसे पढ़ाना होता है उसकी a, b, c, d भी नहीं आती और इसी अलंकर के बैनर तले अपनी उपयोगिता सिद्ध करने की जद्दोजहद करते पाए जाते हैं. तो इसी लिए पूरा अलंकारमय नाम रख दिया अपने पोते का. तीसरी theory तो वो ही घिसी-पिटी थी. परिवार के ज्योतिषी ने कहा था कि लड़के का नाम “झ” से शुरू होना चाहिए. और अगर दो “झ” हों नाम में तो फिर तो अति उत्तम. तो अब फिर उसका नाम “झाझा” तो रख नहीं देते कि बच्चे का नाम हो जाए “झाझा झा”. तो फिर यूँ कह सकते हैं सारी बातों के मद्देनजर, He got the best possible deal.

हाँ तो झुन्नू जी के पिताजी पेशे से दवाई की दूकान चलाते थे. अब छोटे कस्बों में डॉक्टर तो ज्यादा होते नहीं. लोग chemist से ही पूछ कर दवा-दारू करते हैं. और जो chemist को injection वगैरह देना आता हो तो कहना ही क्या. पूरा डॉक्टर ही बन जाता है. और जो कहीं थोड़ी चीड़-फाड़, bandage वगैरह कर लेता हो तो समझ लीजिये कि मानों mini-Fortis ही खोल लिया है. तात्पर्य ये कि झुन्नू जी अच्छे खाते पीते घर के थे. वो वैसे कंठाहा ब्राह्मण थे. उनके परदादा लोगों को श्राद्ध, दाह-संस्कार इत्यादि करवाते थे. तो देखा जाए तो गरुड़ पुराण बांचने से लेकर घर के चिराग को आगे पढने के लिए दिल्ली भेजना किसी भी मायने में काफी उम्दा generational leap थी.

उनकी अम्मा ने उनके साथ उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ एक cook-cum-cleaner-cum-squire-cum-निगेहबान भेजा था. उसका नाम था “छोटुआ”. पूरी संभावना थी कि ये नाम छोटू का अपभ्रंश था पर छोटू बुलाते हुए उसे मैंने किसी को सुना नहीं था इसलिए ये confirm नहीं कर सकता. सारे काम करने के अलावा छोटुआ उनपे ये भी नज़र रखता था कि वो किसी लड़की से पींगे तो नहीं बढ़ा रहे; कहीं दिल्ली की बदनाम हवा तो नहीं लग रही उनको. और सारी रिपोर्ट वापस उनकी अम्माजी को किया करता था. खानदान के इकलौते चिराग थे. और कम से कम 35 लाख के post-dated cheque थे झुन्नू भैय्या. तो इतनी निगरानी तो कोई ज़ाया नहीं थी. 

उनको अपने नाक पर ऊँगली रखके सोचने की आदत थी. जैसे औरों को अपने माथे पर रख के सोचने की होती है. असल में उनकी नाक इतनी बड़ी थी कि शायद पहली बार माथे कि तरफ ऊँगली ले जाते वक़्त बीच में barrier बन के नाक आ गयी होगी और बाद में ये आदत बन गयी. इतनी भयानक आदत थी कि अगर हाथ busy हो तो छोटुआ को बाकायदा बोला जाता था कि उनकी नाक पर ऊँगली रखे ताकि वो सोच सकें. 
अब झुन्नू भैया ज्यादा bright से शख्स थे नहीं. ज़ाहिर सी बात है कि जो कोई अपनी नाक से सोचता हो उससे क्या ही उम्मीद लगायी जा सकती है? एक बार झुन्नू भैय्या खाने बैठे राजमा-चावल तो राजमा में कोई taste ही नहीं लगा उन्हें. बिलकुल फीका. फिर क्या था? छोटुआ पर बरस पड़े, “तुमको का लगता है? एक तुम ही हमारा जासूसी कर सकता है? हम भी मम्मी को खबर कर सकते हैं कि तुम कोई काम ढंग से नहीं करता है. फिर जाना तुम वापस भितरामपुर.”
“का हो गया? काहे कौवा बने हुए हैं?”
“ई कोई राजमा बनाया था तुम? न नमक न मसाला. खाना बनाना याद भी है?”
“हम कब राजमा बनाये? का खा लिए आप? हमको तो पता ही नहीं है. अरे वो जो हम फूलने के लिए पानी में डाले थे, कहीं वो तो नहीं खा गए न?”

Silence. Awkward Silence. साला Awkward का बाप Silence.


अब जो झुन्नूपुराण बांचने बैठेंगे तो सुबह से रात और फिर सुबह हो जाएगी. सो थोडा थोडा बताय रहे हैं. 

ऐसा हुआ एक बार कि वो 12वीं के board के mock टेस्ट में chemistry में fail हो गए. तो उनको ये निर्देश मिले कि अपने पिताजी की मैडमजी के सामने परेड करवाई जाए. अब कम नंबर लाने का उनका अनुभव तो पुराना था पर अपने पिताजी के सामने उनके कभी कम नंबर नहीं आये. कुछ ऐसी बातें होती थी उनकी रिजल्ट निकलने के बाद.
“पप्पाजी रिजल्ट आ गया.”
“कैसे नंबर आये?”
“अच्छे ही आये हैं.” [ सिर्फ ठीक बोलने से न तो काम चलता था और शक पैदा होने की भी गुंजाईश रहती थी.]
“पर कितने अच्छे आये हैं?”
“ जी 57% आये हैं.” (ये सच्चाई थी. पर ख़ुशी और दुःख के एक delicate से बैलेंस को बना कर ये बोलना होता था जिससे लगे कि ये कम नंबर भी अच्छे ही हैं.)
“पर बेटा, ये तो कम हैं. फर्स्ट डिभीज़न भी नहीं हैं.” ( जैसे पंजाबियों को बटर चिकन से, मद्रासियों को The Hindu newspaper से मोहब्बत होती है, वैसे ही बिहार में माँ-बाप को फर्स्ट डिभीज़न से लगाव होता  है).
“अच्छे हैं पप्पाजी. हमारी क्लास में बस 3 लोगों के इससे ज्यादा आये हैं.” (ये trick use करके अपने पिताजी को चूतिया बनाने की कोशिश करने वाले शायद वो दुनिया के 15478921वें शख्श थे.)
“ऐसे कैसे बेवक़ूफ़ पढ़ते हैं तुम्हारी क्लास में. बेकारे तुमको दिल्ली भेजे.”
“अरे ऐसा नहीं है पप्पाजी. वो हमारी मैडम सब हैं न वो कम ही नंबर देते हैं. ऊ का बोलते हैं कि ज्यादा नंबर दे दिए तो बच्चा लोग ऊ का कहते हैं कंप्लेंट हो जायेगा और पढाई नहीं करेगा.”


उनके पिताजी इसके बाद ज्यादा कुछ नहीं कहते थे. शायद कई बार जनसे ज्यादा प्यार किया जाता है उनके द्वारा बेवक़ूफ़ बनाये जाने की आदत हो जाती है. बस इसी mutual understanding पर दोनों की बातें ख़त्म हो जाती थी.

पर अब जो fail हो गए थे और निर्देश सख्त थे तो झुन्नू जी को ये समझ नहीं आ रहा था कि पप्पाजी को कैसे समझाएं कि रातों-रात उनका ये सचिन तेंदुलकर शिव सुन्दर दास कैसे बन गया. तो काफी पशोपेश में थे.  

“अरे झुन्नू भैया, कहते हैं कि मजबूरी में तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. कसम से हम fail हुए होते तो आपको ही बाप बना कर ले जाते. पर अब आप तो ये भी नहीं कर सकते न.”
नाक पर ऊँगली रखने के बाद भी उनकी समझ में घंटा कुछ नहीं आया. अच्छा ही था एक तरीके से ये भी. तभी हमारे दिमाग में कुछ चमका.
“झुन्नू भैया. गधा छोड़िये. गधे से अच्छी acting तो आपका छोटुआ कर लेगा. थोडा बड़ा तो लगता ही है आपसे. का कहते हैं, बताइए.”
“नहीं मानेगा न. और मैडमजी को पता लग गया तो बम्बू कर देंगी.”
“और जो आपके पप्पा को पता चल गया की आप chemistry में चारों खाने चित्त हो गए हैं तो बम्बू छोड़िये, टेंट नहीं खड़ा कर देंगे वो? तो सोच लीजिये कि टेंट चाहिए या बम्बू?”

इस argument पर वो फिर से चारों खाने चित्त हो गए.

छोटुआ को मनाना कोई बड़ी बात नहीं थी. अगर जो ये नाटक चल जाता तो उसके हाथ में ज़िन्दगी  भर के लिए झुन्नू भैया को blackmail करने का ज़बरदस्त हथियार आ जाता. और जो कहीं नहीं चलता तो कुछ पैसे और “included perks” की guarantee उसे दे दी गयी थी. ये असल में झुन्नू भैय्या ने नहीं दी थी. हमलोगों ने दी थी. कोई तमाशा बनने को तैयार हो जाए तो कई बार डमरू बजाने की ज़रुरत नहीं होती भीड़ इकठ्ठा करने के लिए.

छोटुआ को सब कुछ सिखा दिया था उन्होंने. कहने का मतलब बस ये था कि उसको बता दिया था कि उसे बस चुप रहना है. बाकी झुन्नू भैय्या को भरोसा था कि वो संभाल लेंगे. उनका भरोसा देख कर समझ में आता था कि मायावती और राम विलास पासवान जैसे लोग कैसे प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगते हैं.


D-Day के दिन छोटुआ को लेकर झुन्नू भैय्या स्कूल पहुंचे. सीधे शब्दों में कहें तो उनकी फटी पड़ी थी. आखिर बम्बू/टेंट के लिए जगह भी बनानी थी. खैर मैडम जी अच्छे मूड में लग रही थी. वैसे भी PTM के दिन सारे teacher अच्छे मूड में ही होते हैं. मानों कोई मोबाइल पर shooting गेम खेल रहे हों और अचानक से बोनस लेवल आ जाये और भड़भड़ा कर 50-60 टारगेट्स एक साथ आ जायें तो मन कैसे गदगद हो जाता है. PTM में टीचरों को ऐसे ही लगता होगा. ये बच्चा कहीं छूट ना जाए.

झुन्नू भैया का भी नंबर आया. उनको देखते ही मैडम जी चिहुंक कर बोलीं, “क्यूँ बे झुन्नुलाल. बाबूजी को बुलाने बोले थे न आपको. ये भैयाजी को पकड़ कर क्यूँ ले आये हो? और भाई भी बड़ा है कि छोटा?”
“मैडमजी, ये भैया नहीं हैं. हमारे पप्पाजी हैं. बस दिखते नहीं हैं.”

वैसे तो छोटुआ को सख्त दिशानिर्देश दिए गए थी कि वो अपना मुंह न खोले पर जो कहीं दुनिया महज़ हिदायतों पर चलती तो फिर कुछ भी नया कभी कहाँ होना था?
तो वो कूद पड़ा.


“अरे श्रीमतीजी हम इसके बाप ही हैं. वो क्या है कि हमारा बाल विवाह हो गया था. तो  जब हम बच्चे थे तभी हमारे बच्चे हो गए थे. और फिर थोड़े खाते पीते घर के हैं इसलिए, नज़र न लगे पर ज्यादा अधेड़ दिखते नहीं हैं.”


ये बकैती छोटुआ की masterstroke निकली. मैडमजी को जो छोटुआ के झुन्नू भैय्या के पिताजी होने पर संदेह था, उस शक पर अब शक के काले बादल घुमड़ने लगे थे. पर झुन्नू भैया के दिमाग में झुनझुना बजने लगा था. पूरी script रट्टा लगा के आये थे वो. यहाँ ससुरी पहला सवाल ही out of syllabus जा रहा था.

 पर मैडमजी भी  इतनी जल्दी कहाँ हार मानने वाली थी. बड़े ही casual से अंदाज़ में पुछा, “तो जी नाम क्या बताया आपने?”
छोटुआ के मुंह से तपाक से निकला, “जी बुच्चन भैया बुलाते हैं हमको”.

मैडमजी की त्योरियां चढ़ने से पहले ही झुन्नू भैय्या के एंटीने खड़े हो गए थे, नथुने फड़कने लगे थे और मुंह से झाग निकलने ही वाला था कि वो किसी तरह बोले, “वो इनका नाम तो गंगाश्रय झा है. गाँव में बुच्चन भैया बुलाते हैं. वो हमारे पप्पाजी गाँव से बाहर निकले नहीं काफी समय से तो कई बार अपना असली नाम ही भूल जाते हैं.”

कुछ हुआ कि मैडमजी मान गयीं. पता नहीं क्या.

“तो गंगाधर जी, आप दवाई कि दूकान करते हैं न? मुझे पता चला कहीं से. तो कहीं से कुछ दवाई दारू कीजिये अपने लाडले के लिए नहीं तो इनको पास करने के लिए बस दुआ का सहारा रह जायेगा.”
ये कह के ठहाका लगा कर हंसी. फिर बोलीं, “आप केमिस्ट और आपका बेटा केमिस्ट्री में fail. हाहाहा.”

सच बताएं तो जितनी rehersal उन्होंने इस joke और हंसी दोनों की कर रखी थी उसके मद्देनजर उनका परफॉरमेंस काफी कमज़ोर था. खैर.

पर ये बात छोटुआ के बारे में नहीं कही जा सकती. वो पूरा character में घुस चुका था. उसके बाद जो हुआ उसका अंदेशा झुन्नू भैय्या ने अपने सपने में तो क्या अपने सपने के inception में भी नहीं हुआ होगा. ये इधर झुन्नू भैया का कान था और ये इधर छोटुआ का हाथ था. “ई का कह रहे हैं मैडमजी? हम तुमको भेजे यहाँ विद्यार्थी बनने के लिए और तुम तो विद्या की ही अर्थी उठा रहे हो बेटा. अभी तुम्हारे दादाजी को पता चलेगा तो वो तो सदमे से ही मर जायेंगे.”

ज़ाहिर सी बात थी, सिनेमा देख देख कर उसने acting करना सीखा था. सो कतई निरूपा राय बन बैठा था. ये दीगर बात थी कि निरूपा राय के बेटे आमतौर पर college में first आया करते थे.

छोटुआ तो दो चार झापड़ भी लगाने वाला था पर मैडमजी को अभी कुछ और parents से भी जूझना था. तो थोडा प्यार से बोलीं, “कोई नहीं  गंगाराय जी. अगले mock टेस्ट में झुन्नूलाल पास हो जायेंगे. ऐसे भी पहला mock टेस्ट हम जल्दी ले लेते हैं तो बच्चों के पास कई दफा टाइम नहीं होता ज्यादा. तो अब आप जाइये.”

तो ऐसे “बाप बनाओ operation” में विजयी होकर दोनों ने जैसे ही पीछे मुड़कर चलना शुरू किया था कि पीछे से मैडम जी ने आवाज़ लगायी, “गंगाराम जी, ये हमारी spondylitis का दर्द बढ़ता ही जा रहा है. कोई अच्छा pain-killer बताइए न  जिसके sideffects न हों.”

“मैडमजी, हम दवाई की दूकान चलाते भर  हैं बस. वैसे तो कुछ लोग देश भी चलाते हैं. है कि नहीं ? जी अब जाते हैं हम.”

मैडमजी ने हंस कर सर हिला दिया सहमति में. पर जैसे ही दोनों बाहर निकलने वाले थे कि पीछे से आवाज़ आई, “झुन्नुलाल यहाँ आओ थोडा. और अकेले ही आना.”
पास पहुँचने पर मैडम जी ने कहा, “देखिये अगर आप अगले mock टेस्ट में fail हो जाते हैं तो हम आपको boards में तो नहीं ही बैठने देंगे और साथ ही आपके पिताजी को फ़ोन भी कर देंगे. असली वाले पिताजी को. समझ गए न.  अब जाइये.”


P.S:- झुन्नू भैया mock में तो पास हो गए पर board में fail हो गए. आजकल पिताजी को रिटायर करवा के दवाई की दूकान खुद चलाते हैं. और बस ये है कि उनके कैशिएर कि तनख्वाह हमारे take home से थोड़ी सी ज्यादा है.

Tuesday, April 23, 2013

The Dabang.


पहली क्लास थी बारहवीं की.

अभी 2 दिन पहले ही हम छोटे से शहर रांची से दिल्ली आये थे. अब ऐसा भी कोई छोटा शहर नहीं था रांची. पर कहते हैं न कि हर सेर का सवा सेर होता है. और फिर ये तो दिल्ली थी. बचपन से सुनते आ रहे थे कहावतों में. “अब दिल्ली दूर नहीं”, “बड़ा दिल्ली का सुलतान समझ रखे हो?”. पर बस इतना बड़ा शहर था कि घर से स्कूल आने में करीब पौने दो घंटे लगते थे. हमारे घर के तरफ इतनी दूर किसी का ऑफिस होता था तो वो आना जाना ट्रेन से करते थे. वो भी हफ्ते में बस एक बार आना होता था और एक बार जाना.

एक भैया के साथ रहने दिल्ली आये थे. एक सहमे से लड़के के लिए जिसके आँखे थोड़ी चुंधिया सी रही थी, उसके वाबस्ता feminist के लिए जो term उपयुक्त होगा बस वो इस्तेमाल कर लीजिये हमारे भैयाजी के लिए. हम यहाँ मिमिया रहे थे और वो बस हमें छुट्टा सांड समझ बैठे थे. पहले दिन स्कूल जाने के हमारे instructions कुछ ऐसे थे.
बेटा, ये 764 नंबर की बस सीधा तुम्हे स्कूल ले जाएगी. बस स्टॉप पूछ कर उतर जाना. वहां से बस 800-900m पर तुम्हारा स्कूल है. किसी से भी पूछ लेना. वो बता देगा.”

अगर हमें पहले से पता न होता तो अब तक पर हमें पक्का यकीन हो जाता कि वो सरकारी मुलाज़िम हैं.

“बस पॉकेट में कुछ पैसे रखना हमेशा. कहीं भुतलाओ तो चट से ऑटो पकड़ कर सीधा घर. वैसे भी ये दिल्ली है. लड़कों के लिए ज्यादा घबराने की ज़रुरत नहीं होती है.”
हम सब समझ गए थे.

कहते हैं कि “Boarding life makes a man out of a child”. हम तो यहाँ पर खासे साल बोर्डिंग में बिता कर आये थे. उस हिसाब से काफी man up हो जाना चाहिए था हमें. पर अब ये महानगर क्या जाने क्या करने वाला था. बड़ा शहर शायद यूँ कह लीजिये puts man in Haraaman. कुछ दिनों में सीख लिया था कि प्राइवेट बसों में सफ़र करना DTC से कहीं ज्यादा फायदेमंद है. उसमे २ रुपये की  टिकट ले कर कहीं भी जा सकते थे जब तक पकडे न जाओ. और जो पकडे गए तो भोली शकल बना कर बाकी के पैसे दे दो. DTC में तो सीधा 100 का fine होता था. और भी कुछ कुछ ट्रिक्स थे. खैर पर अभी पहली क्लास की तरफ वापस चलते हैं. ये भूमिका चावला के होंठों से भी बड़ी भूमिका बाँधने का मेरा कोई इरादा नहीं था वैसे.

पहली क्लास physics की थी. जिस जंतु (या जीव) ने दरवाज़े से एंट्री मारी थी उसने कतई मेरी बचपन की यादें ताज़ा कर दी थी. उनको देख कर मुझे अलिफ़ लैला में आने वाले जादूगर की याद आ गयी थी. मोटे, लम्बे और यूँ बिलकुल फ्रेंच बकरदाढ़ी की extension के माफिक झूलती हुई सी.

“म्हारा नाम A M Malik सें.”

घर्भवती अल्पविराम (Pregnant Pause) वातावरण में छा गया था.

थोड़ी देर में उन्हें यकीन हो गया था कि हमें रत्ती भर भी फरक नहीं पड़ता कि उनका नाम A M Malik है या A M Naukar.

“मैं तुम्हे Physics पढ़ाऊंगा. और बाकी ये है कि मैं All India Kendriya Vidyalaya Teacher Association का General Secretary भी हूँ.”

घर्भवती अल्पविराम नंबर 2. ये थोडा ज्यादा गर्भवती था.
पर हम तो बच्चे थे. मन के सच्चे थे. ये adult बातें हमारी समझ में कहाँ आने वालीं थी. तो ऐसा हुआ कि आखरी लाइन का न तो हमें मतलब समझ आया और न ही महत्व. आ जाना चाहिए था.

“यो की तुम सबने पहले ये बताओ कि दसवीं में तुम सबने कितने कितने नंबर प्राप्त किये? अच्छा रुको. ये म्हारे पास लिस्ट है.”
“ये सुमित दास कौन है? भाई खड़े हो जाओ. तो आपने सबसे ज्यादा नंबर प्राप्त किये?”

कैसी सी क्लास है. मेरे से ज्यादा नंबर भी नहीं लाया कोई. ये सोचते सोचते आपका ये नाचीज़ खड़ा हो गया.
“देखो ऐसा है हमारे सोनेपत में 60% लाने वाले बच्चे भी all-rounder होते हैं. ये अच्छे नंबर प्राप्त करके घणा खुश होने की कोई ज़रुरत ना है. म्हारी क्लास में सभी बच्चे बराबर हैं.”

जी, पल भर में ये आपका ये नाचीज़, नाचीज़ बन गया था. 


मुझे ज्यादा बातें याद नहीं है सर जी के बारे में. असल में वो GOD particle की तरह थे. मतलब exist तो करते थे पर ज्यादा उनके बारे में पता बस चुनिन्दा लोगों को ही था.  और जैसे आज God particle की पूछ है वैसे ही उनकी थी. और हमारे यहाँ चाहे भगवान हो या राजनेता, पूछ उसकी ही होती है जिससे सबकी फटती है. और बिलकुल God की तरह उन्हें इस बात से घंटा कोई फरक नहीं पड़ता था की किस किस की उनसे फटती है. प्रिंसिपल साहब भी उनके सामने चूहे बन जाते थे. स्कूल के दरबार में तो वो ऊपर थे, पर वो जो “बड़ा दरबार” था उसमे तो प्रिंसिपल एक अदने से employee ही थे.

वो आते थे, वो जाते थे. बाकी सब उनके नाम की बीन बजाते थे.

कह कुछ भी लूं, पर सर जी ने हमें बहुत कुछ सिखाया था. मसलन ऐसे पेपर में कैसे पास होते हैं जिसमे पास होने लायक आताजाता न हो. यही एक चीज़ आगे इंजीनियरिंग में हमारी इतनी काम आई जितनी अदनी physics, chemistry, mathematics अकेली कभी ना आ सकती थी. जैसे कि अगर पेपर में 8 सवाल आयें जिसमे से 5 करने हो तो exactly 5 सवाल attempt करके वो ही आते हैं जो अव्वल दर्जे के घिस्सू हो या फिर वो जो निरे बेवक़ूफ़ होते हैं. ये जो choice होती है वो कमज़ोर बच्चों के लिए होती है ताकि वो पास हो जाएँ. अब जब ये पास करवाने के लिए ही है तो जो लिखा नहीं पर intended है वो भी तो समझिये. 5 सवाल मतलब फुल मार्क्स 70. 8 सवाल मतलब फुल मार्क्स 112. अब बताइए, पास मार्क्स यानी कि 29 किसमें लाना ज्यादा आसान है?
या फिर इस सवाल को ले लिजिये.
वो सवाल जो objective किस्म के होते हैं. मसलन true-false वाले. वो ना आयें तो बस ऐसा करना होता है कि एक जगह true लिखिए और 2 पन्नों के बाद false लिखिए. A,B,C,D वालों के साथ भी यही करना होता था. कहीं न कहीं तो ठीक होगा ही.

(Disclaimer- ये हमें मलिक सर ने सिखाया नहीं था, पर फिर भी सिखाया ही था.)

जैसा हमने पहले कहा सर जी को किसी बात से फरक नहीं पड़ता था. सिलेबस ख़तम करवाने से तो बिलकुल भी नहीं. कॉलेज के उल्टा स्कूल में सिलेबस ख़तम करवाने की फ़िक्र टीचर से ज्यादा बच्चों को होती है. वैसे भी स्कूल की क्लास में कॉलेज की क्लास से ज्यादा front-benchers होते हैं.  तो हरेक पेपर से पहले एक सिलेबस ख़तम होने की क्लास होती थी.  

तो ऐसी ही एक क्लास हो रही थी जिसमे सिलेबस ख़तम करवाने की जद्दोजहद ज़ारी थी. जो पढ़ाया जा रहा था उसपे बिलकुल भी ध्यान न देकर उस प्रयास में हम भी अपना पूरा योगदान कर रहे थे. ध्यान देने लगते तो सिलेबस पूरा नहीं हो पाता.

“This ray come from this side. This convex lens is. This ray from the other side. इसके साथ भी same ही होगा. When the ray pass from both side, mutual induction happen and they converge.”

कोई ध्यान दे नहीं रहा था उनकी बातों पर. वो अपनी बकवास किये जा रहे थे और हम अपनी कि तभी एक आवाज़ आई.

“सर”

ये वो था जो नहीं चाहता था कि सिलेबस कम्पलीट हो पाए. कहीं किसी दिमाग में तांडव होने लगा था.

“’Mutual induction? समझ नहीं आया.”
“बेटा, तुमने दसवीं में कितने नंबर प्राप्त किये?”
“सर 78%. पर वो बिहार बो ..”
“How you got admission? यो कि such low marks. अच्छा sit down. कोई बात नहीं कम नंबर आये तो. अब आ ही गए हो तो पढ़ लो.”

पिछले 5 मिनटों में उस को ना तो lens समझ आया था न mutual induction और अब न ही ये explanation. बेचारा नासमझ. इतना कि फिर से कोशिश कर बैठा.

“सर, ये focal length की equation कैसे derive की जाती है? पिछली बार पेपर में आया था.”

सर जी ने ऐसा look दिया मानों ज़िन्नातों वाली ईईहाहाहा ईईहाहाहा वाली हंसने वाले हैं. पर वो ज़ब्त कर गए और प्यार से बोले, “बेटा सारी बातें मैं बता दूंगा तो अपने पैरों पर खड़े होना कब सीखोगे? खैर. ये दोनों side की lens equation लिख कर add कर लेना. मिल जाएगी focal length की equation.”

उसकी नासमझी की सारी हदें पार हो गयीं थी. अब वो क्या बोले वो भी समझ नहीं आ रहा था उसे.

जिन्होंने physics न पढ़ा हो या जिन्हें याद न हो, उन्हें बता दूं कि अगर आप convex lens के दोनों side के equations add करते हैं तो 0 = 0 prove होता है.


हमारे सर जी exams के paper खुद चेक नहीं करते थे. जैसे कि अपने introductory speech में उन्होंने बताया था कि वो बच्चों में भेद-भाव नहीं करते. सब उनके लिए बराबर हैं. तो फिर वो किसी को कम और किसी को ज्यादा नंबर देने का बीड़ा कैसे उठाते? तो ये नाहक काम उन्होंने कुछ बच्चों के जिम्मे छोड़ रखा था. ये एक ऐसा top secret था जो सबको पता था. तो एक बार ऐसा हुआ कि ये जो privileged बच्चे होते थे उनमें से एक की कुछ बच्चों ने स्कूल के बाहर धुलाई कर दी क्यूंकि उसने पिछले पेपर में कुछ को कम नंबर दिए था. तो किसी ने उसके substitute के तौर पर सर जी को मेरा नाम सुझा दिया. लो बेट्टा, सांप-छंछूदर सी हालत हो गयी.  डरते सहमते हम सर जी तक पहुंचे.

सर जी देखते ही चीखे, “तू यहाँ के कर रहा है भाई? यहाँ बच्चों को आना allow नहीं है.”
“सर वो पेपर चेक करने आपने ही बुलाया था.”
“तो तुझे किसने बुलाया? पहले तो ये बता कि तुझे बारहवीं में आने किसने दिया? पास कैसे हो गया तू? जब देखो तब तो तू क्लास के बाहर ऊदबिलाव की भांति देखता रहता है.”

मैंने अपने चेहरे पर जो expression आ रहा था जो कि हंसी, ख़ुशी और राहत की खिचड़ी थी उसे किसी तरह दबाया और उल्टे पांव वापस हो लिया. असली का उदबिलाव भी इतना सरपट नहीं भागता होगा. ये भी नहीं बोलने की ज़हमत उठायी कि वो मुझे किसी और से कनफुजिया रहे हैं.

ये 2nd pre-board के पेपर के टाइम की बात थी. 3rd preboard आते आते सारे बच्चों ने स्कूल आना बंद कर दिया था. Board के पेपर के लिए study leave मिली हुई थी जिसमे हमने करीब करीब study को leave ही कर दिया था. क्यूंकि IITJEE में अभी टाइम था और हम सारे बिहारी यहाँ board का पेपर पास करने तो आये नहीं थे. कम से कम उस उम्र में हम तो यही सोचते थे.

3rd pre-board के बाद एक दिन स्कूल जाना हुआ तो पता चला कि  मलिक सर को पेपर चेक करवाने के लिए कोई मिल नहीं रहा. तो हमारी मैडम जी ने उनको मेरा नाम सुझा दिया. हम उनके पास फिर से डरते सहमते पहुंचे. पर इस बार उन्होंने हमें कुछ नहीं कहा. शायद वो मुझे भी भूल गए थे और उसे भी जिसे मुझे पिछली बार वो समझ बैठे थे. वैसे उन्हें हमसे काम था इस बार. और वो किसी teacher association के general secretary बिना किसी राजनीति का ज्ञान रखे तो बन नहीं गए होंगे. कुछ instructions दिए उन्होंने जो कि सामान्यतः नेताओं के instructions जैसे ही थे जिनका सार इंग्लिश में कहें तो यूँ था कि  “Cover my shit”. पर हम भी कम थोड़े न थे. सब कुछ समझने के बाद, बिलकुल “Who will Police the Police” वाले लहजे में कहा, “और सर मेरी कॉपी कौन चेक करेगा?”

उन्होंने थोडा सोचा. ये सवाल उनसे शायद किसी ने आज तक नहीं पूछा था. फिर बोले, “रै पूरी क्लास के पेपर चेक करने हैं. तू ना आवे है क्लास में? बस बेटे, खुद को पूरे नंबर न दे दियो. बाकी सारा चलता है.”

पेपर चेक करने बैठा और सारे answers जो repeat कर रखे थे वो काट दिए थे. जिन्होंने objective questions के एक से ज्यादा answers लिख रखे थे उनके सारे answers काट दिए. Science के पेपर को literature की मानिंद चेक किया और जब final marks की लिस्ट बनायी तो पता चला कि highest marks मैंने दिए थे 44 . 70 में से. आज हमारे आगे के दांत सलामत हैं, हमारी उंगलियाँ धनुष के आकार की नहीं हैं और हम लंगड़ा कर नहीं चलते. इसकी शायद एक ही वज़ह है कि board exam से 6 हफ्ते पहले होने वाले 3rd mock पेपर के नंबरों से न तो किसी को और न किसी के बाप को कोई भी फर्क पड़ता था.


हमारा chemistry का final viva कतई eventful रहा था जिसका ज़िक्र मैंने इस पिछली कहानी में किया था. हमारा physics के viva में कोई ऐसा हो-हंगामा नहीं हुआ था. वो क्या था न, हमारे सर जी दबंग थे. कुछ ज्यादा ही. Practical हो रहा था. सब के सामने ही External एक एक कर बच्चों का viva भी ले रही थी कि सर ने एंट्री मारी. External को जा कर साफ़ साफ़ बोला,

“मैडम सब बच्चे नूं अच्छे अच्छे नंबर लगने चाहिए.”

मैडम थोड़ी अवाक् रह गयी थी.

“क्यूँ सर? ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ बच्चे अच्छे होते हैं पढने में कुछ उतने अच्छे नहीं होते. सबको एक से नंबर दे दिए तो उनमें अंतर क्या रह जायेगा?”
“मैडम बच्चे कोई अच्छे –खराब ना होते हैं. सारे बच्चे एक से होते हैं. सारे बच्चे भगवान् का रूप होते हैं. समझे ना?”
GAME. SET. MATCH.

Viva ख़तम होने के बाद  सर ने मुझे अलग रूम में बुलाया. मेरे सामने एक लिस्ट रखी जिसमे सारे क्लास के बच्चों के नाम थे. फिर बोला, “देख ये लिस्ट है. इसमें तू अपने और जो जो बच्चे पेपर चेक किया करते थे physics के उनके 30-30 नंबर लगा दे viva के.”
GAME. SET. MATCH. CHAMPIONSHIP.

P.S :- जब board का रिजल्ट आया था तो मैंने चेक किया था. बस जी उनके physics viva में 30 नंबर आये थे जिनके मैंने अपने हाथों से लगाये थे. न कम न ज्यादा.