Tuesday, May 26, 2015

Athletic Bilbao's Basques Policy

(Cross-Posting from my Quora answer to the question- "Is Athletic Bilbao's policy of recruitng only Basque players in breach of racial discrimination laws?")

From my understanding, it probably is illegal but it is difficult to prove so and has never been challenged in a court of law. Moreover, recently the definition of Basque as viewed by Athletic Club has become more and more fluid and it has made it doubly difficult for anyone to prove that they discriminate specially on racial basis. Also, there is the simple fact that this is an unwritten policy and hence such "bias" though extant, is difficult to prove via a lawsuit. 

Also there are a few point I would like to make in this context. 

  1. The policy is not racist for the simple fact that it is not based on notion of Basque superiority over others. They view themselves as just what they are and want their football club to represent their identity. They don't consider people who don't have this identity as inferiors. In fact in a poll around 76% of Athletic supporters said they will prefer to be relegated to second division- obviously an inferior league- than have non-Basque players in their teams. Also, they recently fielded Jonás Ramalho, a Black player in the first team. He qualifies because his mother is a Basque. So they aren't against a particular skin color either. 
  2. Apart from players who are Basque from parentage, they also consider players of other nationality provided they had moved in a Basque country at a very young age and hence their development took place in a Basque region. So their policy is not strictly nationalistic either.
  3. They often recruit non-Basque coaches and other technical staff. So it is difficult to prove discrimination there. 
  4. Based on above examples, a case can be made that they are more nationalist than racist. And there is a minor issue that since there is no such country as Basque country, it would be difficult to prove nationalistic discrimination as well.

Generally people have accepted them for what they are and let them be. Their success in La Liga (only team apart from Real Madrid and Barcelona to have never been relegated) is hardly grudged because of their uniqueness among other things.

References 
Sid Lowe: Ramalho helping dispel longstanding myth at Athletic Bilbao 
Are Athletic Bilbao playing by the rules?

Friday, May 15, 2015

झुनझुना (Jhunjhuna)

उनका नाम था झुन्नुलाल झल्केश झा. माने कि ऐसा नाम कि चिरौंजीलाल खोसला को भी कमल किशोर खोसला की अम्मा पर प्यार उमड़ आये. अब जी ऐसा नाम कोई conspiracy से कम तो था नहीं. इसलिए उनका ये नाम कैसा रखा गया इसपर भी कई सारी conspiracy theory थीं. किसी से सुना था कि जब छोटे थे तो उन्हें जितना प्यार अपनी अम्मा से था उससे कहीं ज्यादा प्यार अपने झुनझुने से था. उसी को लेकर सोना, उसी को लेकर नहाना, उसी को लेकर धोना, उसी को लेकर खाना और ये झुनझुना प्रेम तीन साल तक चला. तो अम्मा ने उनका नाम झुन्नू ही रख दिया. दूसरी theory इसी कहानी में थोडा नमक-मिर्च डाल कर बनी थी. ऐसा था कि उनके दादाजी primary स्कूल में हिंदी पढ़ाते थे. उन्हें अनुप्रास अलंकर से बड़ा प्रेम था जैसे कि उन सब हिंदी teachers को होता है जिन्हें हिंदी विषय कैसे पढ़ाना होता है उसकी a, b, c, d भी नहीं आती और इसी अलंकर के बैनर तले अपनी उपयोगिता सिद्ध करने की जद्दोजहद करते पाए जाते हैं. तो इसी लिए पूरा अलंकारमय नाम रख दिया अपने पोते का. तीसरी theory तो वो ही घिसी-पिटी थी. परिवार के ज्योतिषी ने कहा था कि लड़के का नाम “झ” से शुरू होना चाहिए. और अगर दो “झ” हों नाम में तो फिर तो अति उत्तम. तो अब फिर उसका नाम “झाझा” तो रख नहीं देते कि बच्चे का नाम हो जाए “झाझा झा”. तो फिर यूँ कह सकते हैं सारी बातों के मद्देनजर, He got the best possible deal.

हाँ तो झुन्नू जी के पिताजी पेशे से दवाई की दूकान चलाते थे. अब छोटे कस्बों में डॉक्टर तो ज्यादा होते नहीं. लोग chemist से ही पूछ कर दवा-दारू करते हैं. और जो chemist को injection वगैरह देना आता हो तो कहना ही क्या. पूरा डॉक्टर ही बन जाता है. और जो कहीं थोड़ी चीड़-फाड़, bandage वगैरह कर लेता हो तो समझ लीजिये कि मानों mini-Fortis ही खोल लिया है. तात्पर्य ये कि झुन्नू जी अच्छे खाते पीते घर के थे. वो वैसे कंठाहा ब्राह्मण थे. उनके परदादा लोगों को श्राद्ध, दाह-संस्कार इत्यादि करवाते थे. तो देखा जाए तो गरुड़ पुराण बांचने से लेकर घर के चिराग को आगे पढने के लिए दिल्ली भेजना किसी भी मायने में काफी उम्दा generational leap थी.

उनकी अम्मा ने उनके साथ उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ एक cook-cum-cleaner-cum-squire-cum-निगेहबान भेजा था. उसका नाम था “छोटुआ”. पूरी संभावना थी कि ये नाम छोटू का अपभ्रंश था पर छोटू बुलाते हुए उसे मैंने किसी को सुना नहीं था इसलिए ये confirm नहीं कर सकता. सारे काम करने के अलावा छोटुआ उनपे ये भी नज़र रखता था कि वो किसी लड़की से पींगे तो नहीं बढ़ा रहे; कहीं दिल्ली की बदनाम हवा तो नहीं लग रही उनको. और सारी रिपोर्ट वापस उनकी अम्माजी को किया करता था. खानदान के इकलौते चिराग थे. और कम से कम 35 लाख के post-dated cheque थे झुन्नू भैय्या. तो इतनी निगरानी तो कोई ज़ाया नहीं थी. 

उनको अपने नाक पर ऊँगली रखके सोचने की आदत थी. जैसे औरों को अपने माथे पर रख के सोचने की होती है. असल में उनकी नाक इतनी बड़ी थी कि शायद पहली बार माथे कि तरफ ऊँगली ले जाते वक़्त बीच में barrier बन के नाक आ गयी होगी और बाद में ये आदत बन गयी. इतनी भयानक आदत थी कि अगर हाथ busy हो तो छोटुआ को बाकायदा बोला जाता था कि उनकी नाक पर ऊँगली रखे ताकि वो सोच सकें. 
अब झुन्नू भैया ज्यादा bright से शख्स थे नहीं. ज़ाहिर सी बात है कि जो कोई अपनी नाक से सोचता हो उससे क्या ही उम्मीद लगायी जा सकती है? एक बार झुन्नू भैय्या खाने बैठे राजमा-चावल तो राजमा में कोई taste ही नहीं लगा उन्हें. बिलकुल फीका. फिर क्या था? छोटुआ पर बरस पड़े, “तुमको का लगता है? एक तुम ही हमारा जासूसी कर सकता है? हम भी मम्मी को खबर कर सकते हैं कि तुम कोई काम ढंग से नहीं करता है. फिर जाना तुम वापस भितरामपुर.”
“का हो गया? काहे कौवा बने हुए हैं?”
“ई कोई राजमा बनाया था तुम? न नमक न मसाला. खाना बनाना याद भी है?”
“हम कब राजमा बनाये? का खा लिए आप? हमको तो पता ही नहीं है. अरे वो जो हम फूलने के लिए पानी में डाले थे, कहीं वो तो नहीं खा गए न?”

Silence. Awkward Silence. साला Awkward का बाप Silence.


अब जो झुन्नूपुराण बांचने बैठेंगे तो सुबह से रात और फिर सुबह हो जाएगी. सो थोडा थोडा बताय रहे हैं. 

ऐसा हुआ एक बार कि वो 12वीं के board के mock टेस्ट में chemistry में fail हो गए. तो उनको ये निर्देश मिले कि अपने पिताजी की मैडमजी के सामने परेड करवाई जाए. अब कम नंबर लाने का उनका अनुभव तो पुराना था पर अपने पिताजी के सामने उनके कभी कम नंबर नहीं आये. कुछ ऐसी बातें होती थी उनकी रिजल्ट निकलने के बाद.
“पप्पाजी रिजल्ट आ गया.”
“कैसे नंबर आये?”
“अच्छे ही आये हैं.” [ सिर्फ ठीक बोलने से न तो काम चलता था और शक पैदा होने की भी गुंजाईश रहती थी.]
“पर कितने अच्छे आये हैं?”
“ जी 57% आये हैं.” (ये सच्चाई थी. पर ख़ुशी और दुःख के एक delicate से बैलेंस को बना कर ये बोलना होता था जिससे लगे कि ये कम नंबर भी अच्छे ही हैं.)
“पर बेटा, ये तो कम हैं. फर्स्ट डिभीज़न भी नहीं हैं.” ( जैसे पंजाबियों को बटर चिकन से, मद्रासियों को The Hindu newspaper से मोहब्बत होती है, वैसे ही बिहार में माँ-बाप को फर्स्ट डिभीज़न से लगाव होता  है).
“अच्छे हैं पप्पाजी. हमारी क्लास में बस 3 लोगों के इससे ज्यादा आये हैं.” (ये trick use करके अपने पिताजी को चूतिया बनाने की कोशिश करने वाले शायद वो दुनिया के 15478921वें शख्श थे.)
“ऐसे कैसे बेवक़ूफ़ पढ़ते हैं तुम्हारी क्लास में. बेकारे तुमको दिल्ली भेजे.”
“अरे ऐसा नहीं है पप्पाजी. वो हमारी मैडम सब हैं न वो कम ही नंबर देते हैं. ऊ का बोलते हैं कि ज्यादा नंबर दे दिए तो बच्चा लोग ऊ का कहते हैं कंप्लेंट हो जायेगा और पढाई नहीं करेगा.”


उनके पिताजी इसके बाद ज्यादा कुछ नहीं कहते थे. शायद कई बार जनसे ज्यादा प्यार किया जाता है उनके द्वारा बेवक़ूफ़ बनाये जाने की आदत हो जाती है. बस इसी mutual understanding पर दोनों की बातें ख़त्म हो जाती थी.

पर अब जो fail हो गए थे और निर्देश सख्त थे तो झुन्नू जी को ये समझ नहीं आ रहा था कि पप्पाजी को कैसे समझाएं कि रातों-रात उनका ये सचिन तेंदुलकर शिव सुन्दर दास कैसे बन गया. तो काफी पशोपेश में थे.  

“अरे झुन्नू भैया, कहते हैं कि मजबूरी में तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. कसम से हम fail हुए होते तो आपको ही बाप बना कर ले जाते. पर अब आप तो ये भी नहीं कर सकते न.”
नाक पर ऊँगली रखने के बाद भी उनकी समझ में घंटा कुछ नहीं आया. अच्छा ही था एक तरीके से ये भी. तभी हमारे दिमाग में कुछ चमका.
“झुन्नू भैया. गधा छोड़िये. गधे से अच्छी acting तो आपका छोटुआ कर लेगा. थोडा बड़ा तो लगता ही है आपसे. का कहते हैं, बताइए.”
“नहीं मानेगा न. और मैडमजी को पता लग गया तो बम्बू कर देंगी.”
“और जो आपके पप्पा को पता चल गया की आप chemistry में चारों खाने चित्त हो गए हैं तो बम्बू छोड़िये, टेंट नहीं खड़ा कर देंगे वो? तो सोच लीजिये कि टेंट चाहिए या बम्बू?”

इस argument पर वो फिर से चारों खाने चित्त हो गए.

छोटुआ को मनाना कोई बड़ी बात नहीं थी. अगर जो ये नाटक चल जाता तो उसके हाथ में ज़िन्दगी  भर के लिए झुन्नू भैया को blackmail करने का ज़बरदस्त हथियार आ जाता. और जो कहीं नहीं चलता तो कुछ पैसे और “included perks” की guarantee उसे दे दी गयी थी. ये असल में झुन्नू भैय्या ने नहीं दी थी. हमलोगों ने दी थी. कोई तमाशा बनने को तैयार हो जाए तो कई बार डमरू बजाने की ज़रुरत नहीं होती भीड़ इकठ्ठा करने के लिए.

छोटुआ को सब कुछ सिखा दिया था उन्होंने. कहने का मतलब बस ये था कि उसको बता दिया था कि उसे बस चुप रहना है. बाकी झुन्नू भैय्या को भरोसा था कि वो संभाल लेंगे. उनका भरोसा देख कर समझ में आता था कि मायावती और राम विलास पासवान जैसे लोग कैसे प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगते हैं.


D-Day के दिन छोटुआ को लेकर झुन्नू भैय्या स्कूल पहुंचे. सीधे शब्दों में कहें तो उनकी फटी पड़ी थी. आखिर बम्बू/टेंट के लिए जगह भी बनानी थी. खैर मैडम जी अच्छे मूड में लग रही थी. वैसे भी PTM के दिन सारे teacher अच्छे मूड में ही होते हैं. मानों कोई मोबाइल पर shooting गेम खेल रहे हों और अचानक से बोनस लेवल आ जाये और भड़भड़ा कर 50-60 टारगेट्स एक साथ आ जायें तो मन कैसे गदगद हो जाता है. PTM में टीचरों को ऐसे ही लगता होगा. ये बच्चा कहीं छूट ना जाए.

झुन्नू भैया का भी नंबर आया. उनको देखते ही मैडम जी चिहुंक कर बोलीं, “क्यूँ बे झुन्नुलाल. बाबूजी को बुलाने बोले थे न आपको. ये भैयाजी को पकड़ कर क्यूँ ले आये हो? और भाई भी बड़ा है कि छोटा?”
“मैडमजी, ये भैया नहीं हैं. हमारे पप्पाजी हैं. बस दिखते नहीं हैं.”

वैसे तो छोटुआ को सख्त दिशानिर्देश दिए गए थी कि वो अपना मुंह न खोले पर जो कहीं दुनिया महज़ हिदायतों पर चलती तो फिर कुछ भी नया कभी कहाँ होना था?
तो वो कूद पड़ा.


“अरे श्रीमतीजी हम इसके बाप ही हैं. वो क्या है कि हमारा बाल विवाह हो गया था. तो  जब हम बच्चे थे तभी हमारे बच्चे हो गए थे. और फिर थोड़े खाते पीते घर के हैं इसलिए, नज़र न लगे पर ज्यादा अधेड़ दिखते नहीं हैं.”


ये बकैती छोटुआ की masterstroke निकली. मैडमजी को जो छोटुआ के झुन्नू भैय्या के पिताजी होने पर संदेह था, उस शक पर अब शक के काले बादल घुमड़ने लगे थे. पर झुन्नू भैया के दिमाग में झुनझुना बजने लगा था. पूरी script रट्टा लगा के आये थे वो. यहाँ ससुरी पहला सवाल ही out of syllabus जा रहा था.

 पर मैडमजी भी  इतनी जल्दी कहाँ हार मानने वाली थी. बड़े ही casual से अंदाज़ में पुछा, “तो जी नाम क्या बताया आपने?”
छोटुआ के मुंह से तपाक से निकला, “जी बुच्चन भैया बुलाते हैं हमको”.

मैडमजी की त्योरियां चढ़ने से पहले ही झुन्नू भैय्या के एंटीने खड़े हो गए थे, नथुने फड़कने लगे थे और मुंह से झाग निकलने ही वाला था कि वो किसी तरह बोले, “वो इनका नाम तो गंगाश्रय झा है. गाँव में बुच्चन भैया बुलाते हैं. वो हमारे पप्पाजी गाँव से बाहर निकले नहीं काफी समय से तो कई बार अपना असली नाम ही भूल जाते हैं.”

कुछ हुआ कि मैडमजी मान गयीं. पता नहीं क्या.

“तो गंगाधर जी, आप दवाई कि दूकान करते हैं न? मुझे पता चला कहीं से. तो कहीं से कुछ दवाई दारू कीजिये अपने लाडले के लिए नहीं तो इनको पास करने के लिए बस दुआ का सहारा रह जायेगा.”
ये कह के ठहाका लगा कर हंसी. फिर बोलीं, “आप केमिस्ट और आपका बेटा केमिस्ट्री में fail. हाहाहा.”

सच बताएं तो जितनी rehersal उन्होंने इस joke और हंसी दोनों की कर रखी थी उसके मद्देनजर उनका परफॉरमेंस काफी कमज़ोर था. खैर.

पर ये बात छोटुआ के बारे में नहीं कही जा सकती. वो पूरा character में घुस चुका था. उसके बाद जो हुआ उसका अंदेशा झुन्नू भैय्या ने अपने सपने में तो क्या अपने सपने के inception में भी नहीं हुआ होगा. ये इधर झुन्नू भैया का कान था और ये इधर छोटुआ का हाथ था. “ई का कह रहे हैं मैडमजी? हम तुमको भेजे यहाँ विद्यार्थी बनने के लिए और तुम तो विद्या की ही अर्थी उठा रहे हो बेटा. अभी तुम्हारे दादाजी को पता चलेगा तो वो तो सदमे से ही मर जायेंगे.”

ज़ाहिर सी बात थी, सिनेमा देख देख कर उसने acting करना सीखा था. सो कतई निरूपा राय बन बैठा था. ये दीगर बात थी कि निरूपा राय के बेटे आमतौर पर college में first आया करते थे.

छोटुआ तो दो चार झापड़ भी लगाने वाला था पर मैडमजी को अभी कुछ और parents से भी जूझना था. तो थोडा प्यार से बोलीं, “कोई नहीं  गंगाराय जी. अगले mock टेस्ट में झुन्नूलाल पास हो जायेंगे. ऐसे भी पहला mock टेस्ट हम जल्दी ले लेते हैं तो बच्चों के पास कई दफा टाइम नहीं होता ज्यादा. तो अब आप जाइये.”

तो ऐसे “बाप बनाओ operation” में विजयी होकर दोनों ने जैसे ही पीछे मुड़कर चलना शुरू किया था कि पीछे से मैडम जी ने आवाज़ लगायी, “गंगाराम जी, ये हमारी spondylitis का दर्द बढ़ता ही जा रहा है. कोई अच्छा pain-killer बताइए न  जिसके sideffects न हों.”

“मैडमजी, हम दवाई की दूकान चलाते भर  हैं बस. वैसे तो कुछ लोग देश भी चलाते हैं. है कि नहीं ? जी अब जाते हैं हम.”

मैडमजी ने हंस कर सर हिला दिया सहमति में. पर जैसे ही दोनों बाहर निकलने वाले थे कि पीछे से आवाज़ आई, “झुन्नुलाल यहाँ आओ थोडा. और अकेले ही आना.”
पास पहुँचने पर मैडम जी ने कहा, “देखिये अगर आप अगले mock टेस्ट में fail हो जाते हैं तो हम आपको boards में तो नहीं ही बैठने देंगे और साथ ही आपके पिताजी को फ़ोन भी कर देंगे. असली वाले पिताजी को. समझ गए न.  अब जाइये.”


P.S:- झुन्नू भैया mock में तो पास हो गए पर board में fail हो गए. आजकल पिताजी को रिटायर करवा के दवाई की दूकान खुद चलाते हैं. और बस ये है कि उनके कैशिएर कि तनख्वाह हमारे take home से थोड़ी सी ज्यादा है.

Sunday, May 03, 2015

What is a Piping Engineer

(Cross-posted from my Quora answer to the question- "What is a piping engineer?" Hope it helps!)

Since I work in Oil & Gas field, I can only speak about the piping engineers from my field.

Broadly speaking, there are two types of Piping engineers - Layout engineers and Stress Engineers. 

Layout Engineers- As the name suggests, they are responsible for proposal and finalization of the layout of the entire area. Though they are piping engineers to start with, since pipes are ubiquitous in a plant, they ultimately become responsible for layout of the entire plant including the civil, electrical and other items. For this reason, a major part of their job involves coordination with other departments and resolution of conflicts as and when they occur. They decide the routing of the pipes, the requirement of items such as manholes and vents as per requirement or standard practice and almost anything else you can imagine to do with pipes. However deciding the size and material of the pipe is done by a Process Engineer and not by a Piping Engineer. Depending on the size of the project, some layout engineers might be required to do specialist jobs like that of a Material Engineer or a Support Engineer. A Material Engineer is required for creation of datasheets, BOQ (Bill of Quantities) etc for respective materials. He may also be the one responsible for selection of material for certain piping items such as supports and springs. A Support Engineer designs supports and creates support standards which contain information about the type of supports required, their respective designs, the acceptable support span etc. If a project is comparatively smaller, you might find Layout Engineer, Material Engineer and Support Engineer all rolled into one.
 
Stress Engineers- Stress Engineers are responsible for checking whether the proposed pipe routing is safe from a stress point of view or not. A pipe must not fail i.e burst, bend or go out of shape beyond acceptable limits due to pressure, temperature or any other ambient conditions. A stress engineer is responsible to ensure that. The analysis is usually done by software such as CAESAR or Autopipe. In case of failure of the pipes, the stress engineers is also required to suggest alternative routing and measures which will ensure the safety of the pipes. Apart from pipes, stress engineer also analyses piping associated with equipment such as pumps, compressors , pressure vessels , storage tanks to ensure that the pipes at the interface (usually nozzles) do not fail while in operation or on standby.

Hope it helps.