Saturday, July 14, 2012

अरे सुनिए!!! हम घर गए थे!! राजधानी में !!

कहते हैं कि बहुत कम ऐसे दिल्लीवाले हैं जो ये कह सकें कि वो originally दिल्ली के हैं. पर दिल्ली कि अच्छी बात यही है कि दिल्ली फिर भी सबकी है . फिर भी मेरे जैसे लाखों या क्या पता अब करोड़ों  लोगों के लिए अगर "घर" कहा जाये तो कोई यू .पी. बोलेगा, कोई बंगाल और मैं बोलूँगा बिहार. घर तो वही है. तो क्या हुआ जो वहां जाना अब बहुत ही कम  हो पता है. आखिर तीर्थयात्रा रोज़ रोज़ तो की नहीं जाती. 

तो इस बार ऐसा हुआ कि टिकट राजधानी एक्सप्रेस कि ली गयीं. पहली बार ज़िन्दगी में ऐसा शुभ काम किया हमने. कुछ तो वक़्त का तकाज़ा था, और कुछ  नयी नयी नौकरी कि आमदनी कि गर्मी भी  थी. तिस पर से सुना था कि इसमें सूप , चाय , कॉफ़ी और पता नहीं और क्या क्या चीज़ों से खातिरदारी कि जाती है. 

हमें पहले लगता था की राजधानी में सफ़र करने वाले लोगों के पास सुर्खाब के पर होते होंगे . पर उस दिन  हमें लगा कि सुर्खाब के परों का स्थान अब blackberry, Galaxy S2 aur Iphone जैसी वस्तुओं ने ले लिया है. ऐसी epiphany आने के बाद हमने सामने देखा कि एक मैडम i-pod पर गाने सुन रहीं थी. Come on, ipod?? अब कुछ तो standard रखो. आप राजधानी में सफ़र कर रहे हो. बाहर होता , तो शायद ऐसा classist तरीके से  न  सोचता . पर कहते हैं न कि खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग बदलता है. वो मैडम कि भी नाक चढ़ी हुई थी थोड़ी. शायद सोच रही थी कि ये किन low class जंगलियों के बीच फँस गयी. शकल से बंगालन लग रहीं थी. एक ज़नाब service boy से ऊँची आवाज़ में लड़ाई कर रहे थे और बड़े गुस्से में भी थे , जबकि service boy की नहीं, उनकी ही गलती थी. वो दिल्ली के लग रहे थे. बाकी लोगों को लड़ाई से या फिर उन भाईसाब के elitist रवैये से कोई फरक नहीं पड़ रहा था. वो सब Indian लग रहे थे . 
खैर. वैसे मैं एक बार office के पैसे  से flight से भी सफ़र कर चुका हूँ. बड़े लोग aeroplane से सफ़र  को flight से आना बोलते हैं . पता नहीं क्यूँ? वैसे ठीक भी है. अब इंसान सिर्फ aeroplane से ही तो उड़ सकता है न. तो  राजधानी से जाना  कोई तोप मारने जैसा तो है नहीं. कुछ तो लोग ये कह सकते हैं कि ये तो ऐसा है जैसे 10वीं के बाद 12वीं करना. या फिर नोबेल prize मिलने के बाद भारत रत्न देना जैसे हमारी सरकार ने मदर टेरेसा और अमर्त्य सेन के साथ किया था. पर ऐसी किसी भी जगह जहाँ etiquette follow करना हो, वहां तो मेरे हाथ पांव फूलने लगते हैं. अब जैसे कि एक thermos लाकर दिया गया, जिसे किसी प्रकार use करके चाय बनानी थी. अब उसके साथ हाथ पांव मारना हमें तो भरे डब्बे में अपनी फजीहत को न्योता देने जैसा लगा. तो हमने ये कह कर पिंड छुड़ाया कि भाई चाय से तो हमारी पिछले जन्म कि दुश्मनी है . तो service boy ने पूछ दिया, "Sir, coffee पीयेंगे ?" हमारा सर रत्ती भर हाँ कि मुद्रा में हिलना शुरू ही क्या हुआ था कि उसने फिर से हमारी तरफ thermos बढ़ाना शुरू कर दिया. किसी तरह Toilet का बहाना बना कर वहां से फूटना पड़ा.

ये सारी बातें हुई ही थीं की हमें थोड़ी देर के लिए नींद आ गयी. उठने पर पता चला कि कोई tomato soup पिलाने कि रस्म होती है जो miss हो गयी. अब 1400 दिए थे इस अय्याशी  के लिए. मन तो पूरा कर रहा था कि जहाँ तक हो सके पाई पाई वसूल करनी है . पर लिहाज़ के वास्ते चुपचाप बैठा रहा. पर थोड़ी देर में वो service boy खुद ही आ कर tomato soup दे गया. पीते ही पता लग गया कि आज तक अलग अलग stations पर जितने भी 5-5 रुपये देकर जो बिना टमाटर वाले tomato soup पीये थे उनके टमाटर आखिर गए कहाँ थे. 

कई मायनों में राजधानी एक्सप्रेस का वो डब्बा मुझे एक तरह से बदलते भारत का प्रतिनिधि, एक microcosm लग रहा था. एक मैडम करीब करीब हर चीज़ को बदलने के लिए service boy पर चीख चिल्ला रहीं थी जिसके लिए उनके पतिदेव उन्हें बीच बीच में थोडा घुड़क भी देते थे.  थोड़ी सी पिघली ice cream भले ही गले के नीचे न उतरे, पर इस sophistication के लिए चीखने की जो जन्मजात कला है उसे कैसे जाने दें? मुझे तो ये शोर अपनी विरासत , अपने रहने के तरीके का अंग ही लगता है. आजकल शहरों में तो अगर आपकी अपने पडोसी से सौभाग्यवश बात होती है तो बिना चीखे तो वो भी नहीं होती होगी. पर उनके husband  को थोड़ी refinement चाहिए थी . अब राजधानी के कूपे में राजाओं जैसा नहीं किया तो फिर क्या किया ?

फिर एक और रस्म अदायगी हुई. Service boy सबसे tip मांगने आया. यहाँ ऐसा भी होता है!!! बटुआ टटोल कर देखा. सिर्फ 100-100 के नोट थे. तो हमारे सामने उसने 10-10 के नोटों का अम्बार लगा दिया और कहा, " सर, जितनी श्रद्धा है उतनी उठा लीजिये." Tipping की  formality को उसने झट से reverse tipping में बदल दिया.  10-10 के नोट उठाते हुए उसकी tray से , भरे डब्बे के सामने हम तो शर्म से पानी-पानी हो गए थे. अगर न हुए होते न, तो 100 रुपये के बदले भगवान कसम 12-13 दसटकिये  उठा गए होते. 

खैर, सुबह हुई. स्टेशन से बाहर निकले. निकलते ही गंजी-बनयान की बड़ी बड़ी  hoardings ने स्वागत किया. अब भैया पटना में उतरे थे. कोई गुडगाँव तो था नहीं  जो Samsung Galaxy S3 के  गगनचुम्बी विज्ञापन दिखेंगे. वैसे तो humans यहाँ भी हैं. शायद जितनी जगहों  पर Galaxy S3 बिकता है उन सब को मिला दो तो उस से भी ज्यादा ही हैं. पर Samsung की भाषा में कहें तो यहाँ Galaxt नहीं Guru बिकता है. Samsun Galaxy S3. Designed for Humans. Designed for Rich Humans. Designed for Very Rich Humans.

मैं जितनी बार जाता हूँ, पटना मुझे नया दिखता है. शायद वहां सच में विकास हो रहा है. या फिर जो अपने मैंने लालू-युक्त formative years बिहार में बिताये हैं, उनकी छवि कहीं दिमाग के पीछे  कुछ ज्यादा ही पुरजोर तरीके से छपी हुई है. सड़कें हेमा मालिनी के गाल तो नहीं बनीं , पर इतना है की 2 घंटे के बस के सफ़र में आप एक proper सी झपकी तो मार ही सकते हैं. गड्ढों के ऊपर  उछलने से आपकी नींद नहीं खुलेगी.   वैसे इस बात में कुछ हाथ इस बात का भी हो सकता है कि अब कई जगहों के लिए पटना से Volvo buses चलने लगी हैं.  यात्रा के दौरान spondylitis होने का खतरा कम हो गया है. 

सड़कें बदल गयी हैं तो उनके साथ लगे दीवारों पर विज्ञापन भी बदल गए हैं. जहाँ पहले अपने शादीशुदा जीवन को बेहतर बनाने के उपाय सुझाये जाते थे, वहाँ अब ये लिखा पाया जाता है की 4 महीने  में अंग्रेजी सीखें. शायद अब भारत और भारतीय के विकास का पैमाना यह भी  है कि ये भाषा  किसको कितनी अच्छी तरह आती है. वैसे गौरतलब ये भी है English सिखाने का दावा करने वाले विज्ञापनों में भी English अभी तक अंग्रेजी ही है. आगे नहीं बढ़ पायी. 

दिखते- दिखाते , पढ़ते-पढ़ाते, झपकियाँ लेते हम घर पहुँच गए. बाकी की कहानी, कभी बाद में. ये rant अच्छा लगा तो शेयर जरूर कीजियेगा. आज कल तो इसके लिए भी बहुत सारे option हैं!!

4 comments:

Ankur Jindal said...

bahut sahi ladke...service boy ki tip waala part faad tha...

Anonymous said...

mast...

akash-admin said...

Bahut gajab likha bhai. Keep posting :)

bharat said...

Nicely written :)